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सकारात्मक पक्ष को समर्थन दिया गया है, किन्तु अर्थ को आजीवन आवश्यकता के रूप में नहीं, बल्कि एक कमजोरी या विवशता के रूप में ही माना गया है। अन्तिम लक्ष्य तो अर्थ या परिग्रह के सम्पूर्ण परित्याग को ही बताया गया है। यह विचारधारा साधक को अन्ततः अर्थ-भोग के मोहपाश से पूर्णतया छूटकर अर्थ-मुक्त अवस्था की प्राप्ति का ही निर्देश देती है। इस प्रकार यहाँ अर्थ का स्थान मोक्ष एवं धर्म की तुलना में निम्न है।
विविध आध्यात्मिक विचारधाराओं में अर्थ का महत्त्व कुछ इस प्रकार है
इन विचारधाराओं में गीता, उपनिषद्, जैनदर्शन, बौद्धदर्शन, नैयायिकदर्शन आदि प्रसिद्ध हैं। मूलतः इनमें मोक्ष के साधन रूप 'अर्थ' को ही सेवनीय बताया गया है। ★ श्रीमद्भगवद्गीता की दृष्टि - अर्थ और काम को धर्माधीन एवं धर्म को मोक्षाभिमुख होना
चाहिए। यद्यपि धर्म, अर्थ और काम पुरूषार्थ की बुद्धि राजसी होती है, फिर भी जीवन में इनकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। गीता में स्पष्ट कहा है कि धर्मयुक्त , त्यागपूर्वक एवं वर्णानुसार आजीविकोपार्जन करना चाहिए। न धन की चिन्ता में डूबे रहना और न दानादि
का अभिमान करना। अन्यथा यह अर्थ ही धर्म एवं मोक्ष का विरोधी हो जाता है। ★ बौद्ध विचारधारा - इसमें भी निर्वाण को परम-प्रयोजन के रूप में तथा त्रिवर्ग को साधन रूप
में मान्यता दी गई है। अर्थ को कभी धर्मविरुद्ध नहीं होना चाहिए। व्यक्ति को सदैव धर्मयुक्त व्यवसाय ही करना चाहिए। उसे जीवन में न तो कृपण होना चाहिए और न ही अपव्ययी, बल्कि समुचित रूप से दान एवं भोग हेतु उपार्जित धन का उपयोग करना चाहिए, क्योंकि न तो धन के माध्यम से बुढ़ापा और मृत्यु से छुटकारा मिलता है और न ही मृत्यु के पश्चात् धन साथ जाता है।58 साधक को चाहिए कि वह प्रमाद को छोड़े और परिश्रमपूर्वक धनार्जन करे। जैसे प्रयत्न करने से मधुमक्खी का छत्ता और चींटी का वाल्मीक बनता है, वैसे ही प्रयत्नशीलता से अर्थ-लाभ भी होता है। अतः सर्दी-गर्मी अथवा देर होने का बहाना न बनाकर कठोर परिश्रम करना चाहिए। इस प्रकार, उसे धर्म एवं मोक्ष (निर्वाण) के अनुकूल प्रवृत्ति करते हुए साधना का विकास करना चाहिए।
यही सापेक्षिक विचारधारा प्रायः सभी भारतीय आध्यात्मिक-दर्शनों की है। 10.2.3 अर्थ की सीमाएँ एवं दोष
पूर्वोक्त तीनों विचारधाराओं के आधार पर कहा जा सकता है कि भौतिकवादी दृष्टि में अर्थ-भोग की, नैतिकवादी में धर्म की और अध्यात्मवादी में मोक्ष की प्रधानता है। इनमें अर्थ का मूल्य क्रमशः कम होता चला गया।
सभी आध्यात्मिक विचारधाराओं में अर्थ-साधन की उपयोगिता के बारे में विचार हुआ और यह निष्कर्ष निकला कि अर्थ एवं भोग की तुलना में मोक्ष ही जीवन का सही लक्ष्य है। इसके कारण हैं - 541
अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
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