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सार-रूप में जैन जीवन-दृष्टि में अर्थ का महत्त्व
साध्य अर्थात् मोक्ष की अपेक्षा से 'अर्थ' का महत्त्व नहीं है तथा उसके निकटवर्ती (अनन्तर) साधन की अपेक्षा से भी प्रत्यक्षतः 'अर्थ' का महत्त्व नहीं है, किन्तु मोक्षमार्गीय साधना की स्थिरता तथा उत्कर्षता के लिए 'अर्थ' परोक्षतः एक उत्तम साधन (परम्पर) बन सकता है। इस हेतु साधक को अपनी भूमिकानुसार एवं आवश्यकतानुरूप परिमित अर्थ - पुरूषार्थ करना चाहिए, ऐसा जैनधर्म का निर्देश है। श्रावक के पैंतीस मार्गानुसारी गुणों में न्यायोपार्जित धन को भी एक सद्गुण ही माना गया है। 86
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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