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• शस्त्रीकरण (Armament) • dohricht Pachth (Technological Development) • सुविधा एवं विलासिता (Comforts & Luxeries) • उपभोक्तावाद (Consumerism) • संरचनात्मक विकास (Infrastructural Development) • बृहद्स्त रीय उद्योग (Large Scale Industries) • आयात-निर्यात (Foreign Trade)
• महानगरीय व्यवस्था (Metropolitan City's System)
इस प्रकार, एक सामान्य व्यक्ति इस अर्थनीति से आकर्षित होकर आर्थिक चक्रव्यूह में फँस जाता है। भले ही इस अर्थनीति का सपना प्रियकर, चित्ताकर्षक और मनोज्ञ है, फिर भी जैनदृष्टि के आधार पर इसे हितकर नहीं कहा जा सकता। इच्छाओं की असीमता और संसाधनों की सीमितता के फलस्वरूप अनेक विसंगतियाँ पैदा हो जाती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में इसीलिए कहा गया है102 -
सुवण्ण-रुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया।
नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा उ आगास समा अणन्तिया।। कदाचित् कैलास के समान सोने एवं चाँदी के असंख्य पर्वत प्राप्त हो जाएँ, फिर भी लोभी पुरूष को उनसे तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं। (2) आधुनिक अर्थनीति के भयावह दुष्परिणाम
अभी तक हमने आधुनिक अर्थनीति के सैद्धान्तिक पहलुओं एवं उनकी प्रमुख कमियों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है, किन्तु जो अतिचिन्तनीय एवं अन्वेषणीय विषय है, वह है – इस अर्थनीति के दुष्परिणाम, जिनसे वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में अत्यधिक हानियाँ हो रही हैं तथा जिन्हें रोकना समय की माँग है। इन दुष्परिणामों का वर्णन इस प्रकार है - ★ अर्थ के लिए जीवन - यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आज अर्थ जीवन के लिए नहीं रहा, बल्कि जीवन ही अर्थ के लिए समर्पित हो गया है। दूसरे शब्दों में, अर्थ साधन
न रहकर स्वयं ही साध्य बन गया है।103 ★ मृगतृष्णा - प्रत्येक व्यक्ति असीमित एवं अनियंत्रित इच्छाओं के दबाव में पैसे और पदार्थ के लिए ही भाग-दौड़ कर रहा है, जिसे जैनाचार्यों ने 'मृगतृष्णा' की उपमा दी है।104 कहा जा
सकता है कि अर्थ के साथ जीवनयात्रा करने वाला आज 'अर्थ' के पीछे भाग रहा है। ★ अर्थ की दासता - अर्थ जीवन-निर्माण का माध्यम नहीं रहा, बल्कि जीवन स्वयं अर्थ का
गुलाम बन गया। अर्थ और जीवन का पारस्परिक सम्बन्ध इस प्रकार हो गया है - 551 अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
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