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यावज्जीवं सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः।। इस प्रकार, भौतिक विचारधारा ने अर्थोपार्जन की प्रक्रिया में साधन-शुद्धि को भी अनदेखा कर जीवन में 'अर्थ' को एकान्त से सर्वोपरि स्थान दिया है। वर्तमान युग में इसका भयंकर दुष्प्रभाव स्पष्ट दिखता है। अर्थ के खातिर ही भ्रष्टाचार, घोटाले, दहेज, हत्याएँ, अपहरण, युद्ध आदि प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं। जैनदृष्टिकोण इस विचारधारा से भिन्न है, जिसकी चर्चा आगे की जाएगी। (2) नैतिक विचारधारा
यह सामाजिक जीवन को सुव्यवस्थित बनाने के लिए अपनाई गई एक प्राचीन व्यवस्था है, जो धर्म के अधीन अर्थ और काम के समन्वित सेवन पर जोर देती है। इसमें धर्म या नैतिकता से मर्यादित अर्थ को ही उचित माना गया है। यह अर्थ के अनैतिक (धर्मविरुद्ध) पक्ष को नकारती है और नैतिक (धर्मनियन्त्रित) पक्ष को प्रोत्साहित करती है। इसके दो प्रमुख सिद्धान्त हैं - (क) अर्थ महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। (ख) धर्मविरुद्ध अर्थ महत्त्वहीन है, क्योंकि अर्थ की तुलना में धर्म या नैतिकता अधिक महत्त्वपूर्ण है। (क) अर्थ महत्त्वपूर्ण है – नैतिक विचारधारा में 'अर्थ' के लिए एक विवेक-सम्मत प्रशंसा का भाव है, क्योंकि इसमें 'अर्थ' को जीवनपर्यन्त उपादेय माना गया है। यद्यपि भौतिकवादी विचारधारा के समान इसमें भी अर्थोपार्जन को एक अनिवार्य कर्त्तव्य के रूप में देखा गया है, तथापि यह अर्थ को केवल भोग का ही नहीं, किन्तु नैतिक एवं चारित्रिक उन्नति का साधन भी मानती है। साथ ही, यह नैतिक विचारधारा अनुचित साधनों से किए जाने वाले धनार्जन को बिल्कुल भी उचित नहीं मानती है।
नैतिकवादियों की दृष्टि में अर्थ की महत्ता कुछ इस प्रकार है★ महाभारत में कहा गया है - धर्म का पालन पूर्णतः अर्थ-आश्रित है। जिसके पास अर्थ ही नहीं, वह अपना दायित्व-निर्वाह भी नहीं कर सकता। जिस तरह पहाड़ से नदियाँ निःसृत होती हैं, उसी प्रकार धन से धर्म, सुख, साहस, ज्ञान और गौरव। भौतिक दरिद्रता तो एक बुराई एवं
पाप है। ★ पंचतंत्र में कहा गया है – दुनिया में अपूज्य को पूजनीय, मूर्ख को बुद्धिमान् एवं अवन्दनीय को
वन्दनीय माना जाता है, यह सब धन का प्रभाव है। ★ कौटिल्य कहते हैं – निर्धनता तो जीते हुए भी मृत्यु के समान है, अतः निर्धनता की अपेक्षा मर
जाना ही श्रेयस्कर है। 45 निराशावादी व्यक्तियों को चाहिए कि स्वयं को अमर मानकर अर्थोपार्जन करे, क्योंकि धनवान् सबको मान्य होता है, जबकि अर्थहीन इन्द्र भी संसार की दृष्टि में अमान्य है। यह धन का महत्त्व है कि कुरूप को रूपवान् एवं निम्न को उच्च समझा
जाता है। समय (विपत्ति) आने पर ऐश्वर्य (अर्थ) की आवश्यकता पड़ती है।48 धन के बिना 539
अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
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