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प्रयोग भी करता है। अतः, सूक्ष्म-स्तर (Micro-level) पर किसी व्यक्तिविशेष के लिए अपनी जैविक आवश्यकताओं से सम्बन्धित बाह्य तथा आभ्यन्तर वस्तुएँ ही 'अर्थ' हैं। इस प्रकार, जीवन में 'अर्थ' की अल्प अथवा अधिक आवश्यकता विशुद्ध रूप से व्यक्ति पर निर्भर है। यह प्रतिसमय बदलती हुई न्यूनतम शून्य रूप तथा अधिकतम सम्पूर्ण लोकप्रमाण भी हो सकती है।
मेरी दृष्टि में, 'अर्थ' की निष्कर्षात्मक परिभाषा इस प्रकार हो सकती है -
“वैयक्तिक अथवा सामाजिक स्तर पर, भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन को लक्ष्य में रखकर, जीवन के निर्वाह एवं विकास से सम्बन्धित, विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, जिन भौतिक एवं अभौतिक वस्तुओं एवं व्यवहारों (कार्यो/भावों) की आवश्यकता होती है, वे 'अर्थ' कहलाती हैं।"
इनके उचित प्रबन्धन हेतु मार्गदर्शन प्रदान करना ही इस अध्याय की विषय-वस्तु है। प्रस्तुत अध्याय में 'अर्थ' शब्द कहीं बाह्य तो कहीं आभ्यंतर, कहीं भौतिक तो कहीं अभौतिक और कहीं वस्तु तो कहीं व्यवहार (कार्य या भाव) का द्योतक है, अतः प्रसंगानुसार उचित आशय ग्रहण करना आवश्यक है। 10.1.4 ऐतिहासिक परिवर्तन
प्रत्येक युग में मनुष्य ने अपने समय एवं विचारों का बहुत बड़ा भाग जीवनोपयोगी वस्तुओं की प्राप्ति हेतु व्यय किया है। आर्थिक क्षेत्र में हुए सतत अन्वेषण ने सभ्यता के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अतः, ऐतिहासिक कालक्रम से अर्थ की प्रकृति के बारे में प्रचलित विविध विचारधाराओं को समझना जरुरी है। (1) प्राचीन युग - इसमें आध्यात्मिकता और नैतिकता से मर्यादित अर्थार्जन करने वाली जीवनशैली की प्राथमिकता थी। भगवान् महावीर के शासनकाल में लगभग 5 लाख लोगों का व्रती या संयमी समाज था, जो तत्कालीन जनसंख्या की तुलना में कोई छोटा नहीं था। वह परिग्रह-परिमाण व्रत आदि का पालन करते हुए धर्मानुकूल व्यापार आदि करता था। लिच्छवी गणतंत्र के प्रमुख महाराजा चेटक उसके प्रमुख सदस्य थे।"
तथागत बुद्ध ने भी अपने अनुयायियों को सम्यक् आजीविका का उपदेश दिया था, जिसमें मुख्यतया दो प्रकार के निर्देश थे - (क) भिक्षुओं को भिक्षु नियमों के अनुसार भिक्षा प्राप्त करना। (ख) गृहस्थों को गृहस्थ नियमों के अनुसार आजीविका अर्जित करना।
हिन्दू-दर्शन में भी त्रिवर्ग अवधारणा के आधार पर 'अर्थ' और 'काम' पुरूषार्थ को इस प्रकार से नियन्त्रित करने का निर्देश दिया गया कि वे कभी भी धर्म-पुरूषार्थ के लिए बाधक न बनें। महाभारत, रामायण आदि ग्रन्थों में धन और धर्म दोनों को सन्तुलित महत्त्व दिया गया। कौटिल्य ने भी अपने
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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