________________
★ अर्थ के लिए अर्थ - इस स्थिति में अर्थ का साध्य सिर्फ अर्थ ही बन जाता है, क्योंकि व्यक्ति अर्थ-संग्रह को ही सुख-आनन्द का आधार मान लेता है। उदाहरण के लिए मम्मण सेठ का कथानक जैनधर्म में प्रसिद्ध है, जिसने अर्थ को. जो मलतः साधन है. साध्य मान लिया था और अपार सम्पत्ति होने के बाद भी जो दुःख और कष्ट पाता हुआ एवं जान को जोखिम में डालता हुआ अर्थोपार्जन में ही लगा रहा था। निश्चित तौर पर यह विकृत मानसिकता का परिणाम है। * भोग के लिए अर्थ - इस स्थिति में अर्थ का साध्य एकमात्र भोगोपभोग करना होता है,
क्योंकि व्यक्ति इसे ही अधिकतम सन्तुष्टि एवं सुख-आनन्द का कारण मानता है। प्राचीनकाल में चार्वाक-दर्शन की दृष्टि में भी जीवन का यही प्रयोजन रहा और वर्तमान काल में प्रो.
रॉबिन्स आदि सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों एवं एक सामान्य आदमी की जीवन-दृष्टि भी यही है। ★धर्म के लिए अर्थ - जब अर्थ का उद्देश्य नैतिक चारित्र की उन्नति हो, तब उसका साध्य धर्म
हो जाता है। ऐसी स्थिति में अर्थार्जन और अर्थोपयोग दोनों ही धर्महेतु एवं धर्ममर्यादित हो जाते हैं। प्राचीनकाल में त्रिवर्गीय अवधारणा के अनुयायियों की विचारधारा इसी प्रकार रही। कहा भी गया है -
विद्या ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मः ततः सुखम् ।। ★ मोक्ष के लिए अर्थ - इस स्थिति में अर्थ का परम-साध्य सर्व-इच्छाओं से विमुक्ति-रूप मोक्ष-दशा ही होती है, क्योंकि व्यक्ति इस सत्य को स्वीकार कर लेता है कि इच्छा ही दुःख का मूल है। वह शनैः-शनैः बाह्य-अर्थ की आवश्यकता को अल्प, अल्पतर और अल्पतम तथा आभ्यन्तर अर्थ (आत्मा) को शुद्ध , शुद्धतर और शुद्धतम करता जाता है। इसी दृष्टि से जैन मुनि का यह आचार है कि वह आहार एवं उपधि को केवल संयम की साधना के लिए ही ग्रहण करे, न कि शारीरिक तन्दुरूस्ती/सुडौलता के लिए। कहा गया है – इस जगत् में मुनिराज ही सदा सुखी रहते हैं, क्योंकि वे आत्म-वैभव के सम्राट् होते हैं।
ग्रहे आहार-वृत्ति पात्रादिक, संयम साधन काज।
देवचन्द्र आणानुजाई, निज संपत्ति महाराज।। जैनाचार्यों के अनुसार एवं अर्थ-प्रबन्धन की दृष्टि से भी यह चतुर्थ पक्ष ही श्रेष्ठ है, जिसमें अर्थ रूपी साधन का भूमिकानुसार उचित मात्रा में प्रयोग करते हुए, उस पर निर्भरता को शनैः-शनैः समाप्त कर दिया जाता है। अर्थ-प्रबन्धक के लिए भी यही नीति अनुकरणीय है।
इस प्रकार, जीवन में अर्थ की भूमिका या स्थान साधन के रूप में है, न कि साध्य के रूप में।
535
अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org