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अर्थात् सभी जीवों से मैं क्षमा माँगता हूँ और सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरी सभी से मैत्री है, किसी से भी मेरा वैर नहीं। 65) ईंट का जवाब पत्थर से देने की नीति नहीं अपनाना, क्योंकि
अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं । अर्थात् शस्त्र एक से बढ़कर एक हैं, परन्तु अशस्त्र (अहिंसा) का कोई तोड़ नहीं।" 66) परिग्रह से प्रेम परिजनों से द्वेष का कारण न बन जाए, इस हेतु परिग्रह का सीमाकरण करना। कहा भी गया है
परिग्गह-निविट्ठाणं, वेरं तेसिं पवड्डइ अर्थात् जो परिग्रह में व्यस्त हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर ही बढ़ाते हैं। 67) पहले विचारना, फिर बोलना, ताकि सामाजिक असन्तोष उत्पन्न न हो।99 68) सदैव निर्भय रहना।100 69) कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य रखना, क्योंकि धैर्यशील व्यक्ति के लिए कोई भी कार्य असम्भव
नहीं है।101
70) स्वार्थ तजना और सेवा (वैयावृत्य) करना, क्योंकि स्वार्थ से सिर्फ पैसा मिल सकता है, परन्तु
प्रेम तो सेवा से ही मिलेगा। 71) कर्म करना, लेकिन निष्काम (अनिदान) भाव से करना, क्योंकि स्वयं भगवान् ने भी इसकी
प्रशंसा की है।102 72) जगत् में प्राप्त वस्तुओं का उपयोग करना, लेकिन उनका स्वामी नहीं बनना (We have use right, but we don't have ownership right)। कहा भी गया है103 -
आतमबुद्धे हो कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघ रूप।
कायादिकनो हो साखीधर रह्यो, अन्तर आतम रूप। 73) सबका भला करना , लेकिन एहसान नहीं जताना। 74) अपनी इच्छा से जीने के बजाय परेच्छाचारी अर्थात् पर की इच्छा से जीने का भी अभ्यास
करना,104 इस हेतु श्रीमद्राजचंद्र का जीवन अनुकरणीय है। 75) सामाजिक जीवन में जीते हुए अपनी आत्मसाधना में निरन्तर प्रगति करते रहना। 76) अपने परिवार एवं समाज को सांसारिक नहीं, अपितु आध्यात्मिक बनाना, जिसमें हर सदस्य को
आसक्तिजन्य नहीं, वरन् अनासक्तिजन्य सुख की प्राप्ति हो सके।
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अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन
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