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9.6 निष्कर्ष
जैनदर्शन निवृत्तिपरक धर्म होते हुए भी एक संघीय धर्म है। इसमें संघ या समाज को केवल व्यक्तियों का समूह अथवा सम्बन्धों का जाल ही नहीं, अपितु सद्गुणों का समूह भी माना गया है। आशय यह है कि जैनाचार्यों की दृष्टि में संघ या समाज नैतिक एवं आध्यात्मिक आदर्शों का अनुसरण करने वाले व्यक्तियों का एकीकृत समूह है।
जैनाचार्यों ने समझने के लिए भले ही व्यक्ति और समाज को भिन्न-भिन्न माना है, परन्तु मूलतः उनकी मान्यता यह है कि व्यक्ति और समाज दोनों अभिन्न हैं और समाजहित में व्यक्तिहित तथा व्यक्तिहित में समाजहित निहित है।
जैनदर्शन में समाज के लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों विभागों का समन्वय किया गया है। जहाँ लौकिक समाज के अन्तर्गत व्यक्ति को अपने लौकिक कर्त्तव्यों, जैसे - देशाचार का पालन, न्यायपूर्वक व्यापार, माता-पिता की सेवा आदि का पालन करने का निर्देश दिया गया है, तो वहीं लोकोत्तर समाज के अन्तर्गत धार्मिक कर्त्तव्यों, जैसे – साधु-साध्वी की सेवा-शुश्रूषा, सत्साहित्य का श्रवण एवं अध्ययन, साधर्मिक वात्सल्य आदि का पालन करने का निर्देश भी दिया गया है।
इन निर्देशों को सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक स्तर पर स्वीकार करके प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन-प्रबन्धन कर सकता है। वह पारिवारिक, धार्मिक , आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, शैक्षणिक आदि क्षेत्रों में कार्य करता हुआ अपने व्यवहारों को संयनित एवं नियंत्रित कर सकता है और इस प्रकार जीता हुआ समाज-प्रबन्धन के तीनों उद्देश्यों की प्राप्ति में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा कर सकता है। 1) सामाजिक शान्ति 2) सामाजिक सुसंस्कारों का संरक्षण 3) सामाजिक प्रगति
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अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन
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