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9.5 जैन आचारमीमांसा में समाज - प्रबन्धन के प्रायोगिक पक्ष
जैनदर्शन समाज–प्रबन्धन के केवल सूत्र ही प्रस्तुत नहीं करता, अपितु उसके व्यावहारिक या प्रायोगिक पक्ष पर भी बल देता है। वह यह मानता है कि सिद्धान्त चाहे कितना ही आदर्श और अच्छा क्यों न हो, किन्तु यदि उसका व्यावहारिक जीवन में कोई प्रयोग नहीं किया जाता, तो यह केवल सिद्धान्त बनकर ही रह जाता है और उससे व्यक्ति और समाज में कोई परिवर्तन नहीं होता ।
जैनदर्शन यह मानता है कि सम्यग्ज्ञान वही हो सकता है, जो हमारे चरित्र में अभिव्यक्त हो । कहा भी गया है 83
नाणेण य करणेण य दोहेवि दुक्खक्खयं होइ
अर्थात् ज्ञान और तदनुरूप आचरण • इन दोनों की साधना से ही दुःखों का क्षय होता है।
इसके अनुसार केवल सूचनात्मक ज्ञान वस्तुतः सम्यग्ज्ञान नहीं है। यदि एक व्यक्ति तम्बाकू के सारे दुष्परिणामों को जानकर भी तम्बाकू का परित्याग नहीं करता, तो उसका वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है। वस्तुतः, जानने और मानने के साथ जीना भी आवश्यक है।
समाज-प्रबन्धन के अन्तर्गत जब तक कि व्यक्ति मूल्यों और आदर्शों को जीवन में क्रियान्वित नहीं करता, तब तक वे मूल्य एवं आदर्श वैयक्तिक एवं सामाजिक कल्याण सहायक नहीं होते । समाज–प्रबन्धन का प्रायोगिक पक्ष यही है कि जो वैयक्तिक और सामाजिक जीवन-मूल्य प्रस्तुत किए गए हैं, उनका व्यवहार में भी उपयोग किया जाए, इसीलिए जैनआचारदर्शन में समाज - प्रबन्धन एक व्यवहारिक या प्रायोगिक प्रक्रिया भी है। प्रबन्धन का एक सूत्र हमें यही उपदेश देता है 84
न नाणमित्तेण कज्जनिप्फत्ति
अर्थात् जान लेने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती। अतः जैनआचारशास्त्र का इस बात पर बल रहा है कि समाज - प्रबन्धन के सूत्रों को प्रायोगिक स्तर पर जीना भी आवश्यक है। जैनाचार्यों का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति जीवन- व्यवहार में वैयक्तिक हित की अपेक्षा लौकिक या संघीय हित को अधिक महत्त्वपूर्ण माने, क्योंकि यदि संघ या समाज अनियंत्रित होगा अर्थात् उसका सम्यक् प्रबन्धन नहीं होगा, तो वह व्यक्ति के चारित्र निर्माण में भी सहायक नहीं बन सकेगा। वस्तुतः, व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास सामाजिक विकास एवं सामाजिक प्रगति पर निर्भर है और इसीलिए संघहित वैयक्तिक हितों से ऊपर है, परन्तु शर्त यह है कि ये सामाजिक विकास और सामाजिक प्रगति नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों से युक्त हो ।
उपर्युक्त दृष्टि के आधार पर जब कोई जीवन - प्रबन्धक समाज - प्रबन्धन के सिद्धान्तों को जीवन व्यवहार में क्रियान्वित करने जाता है, तब समाज के विभिन्न घटक बदल-बदलकर उसके सामने आते हैं, जैसे कभी वह किसी परिजन से मिलता है, तो कभी किसी धर्मावलम्बी से, तो कभी किसी राजनेता से इत्यादि। इन सबके बीच जीते हुए यदि उसके विचार एवं व्यवहार बिगड़ जाते हैं, जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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