________________
(7) सामाजिक जीवन-धर्म एवं सामाजिक-प्रबन्धन - जैन विचारकों ने न केवल आध्यात्मिक-दृष्टि से, अपितु सामाजिक-दृष्टि से भी धर्म की विवेचना की है। स्थानांगसूत्र में सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में दशविध धर्मों की व्याख्या की गई है - (क) ग्राम धर्म – गाँव की परम्परा, व्यवस्था, मर्यादा एवं नियमों के अनुरूप कार्य करना। (ख) नगर धर्म – नगर की परम्परा, व्यवस्था, मर्यादा एवं नियमों के अनुरूप कार्य करना। (ग) राष्ट्र धर्म - राष्ट्रीय विधि-विधानों, नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना। (घ) पाखण्ड धर्म – पाप को खण्डित करने वाला अनुशासित, नियमित एवं संयमित जीवन जीना (अतीत में पाखण्ड का यह विशिष्ट अर्थ प्रचलित था)। (ङ) कुल धर्म – परिवार अथवा वंशपरम्परा के आचार नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना। (च) गण धर्म – गण (गणतन्त्र एवं गच्छ) के नियमों और मर्यादाओं का पालन करना। (छ) संघ धर्म – संघ की मर्यादा, परम्परा एवं व्यवस्था का पालन करना। (ज) श्रुत धर्म – गुरु और शिष्य के द्वारा शिक्षण व्यवस्था सम्बन्धी नियमों का पालन करना। (झ) चारित्र धर्म – श्रमण एवं गृहस्थ धर्म के आचार-नियमों का पालन करना। (ञ) अस्तिकाय धर्म - यह धर्म वस्तु-स्वरूप को इंगित करता है, अतः सामाजिक सन्दर्भ में इसका उल्लेख करना अप्रासंगिक होगा।
इस प्रकार, जैनधर्म में वैयक्तिक एवं सामाजिक कर्त्तव्यों का स्पष्ट विवेचन किया गया है, जिसके द्वारा समाज-प्रबन्धन के लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। वस्तुतः, ये धर्म व्यक्ति को उसके कर्तव्यों के पालन के लिए अनुशासित एवं जाग्रत बनाते हैं। इनका पालन करके वह सामाजिक-व्यवस्था एवं संगठन की प्रगति में उचित सहयोगी बन जाता है। प्रत्येक जीवन–प्रबन्धक को इन धर्मों का यथायोग्य पालन करना चाहिए। (8) काम एवं अर्थ पर नियन्त्रण और सामाजिक-प्रबन्धन - जैनआचारशास्त्र में जहाँ एक
ओर व्यक्ति को उसके कर्त्तव्यों के प्रति निष्ठावान् बनाया जाता है, वही दूसरी ओर उसके अधिकारों की भूख को भी शान्त अथवा मर्यादित करने का निर्देश दिया जाता है।
वस्तुतः जब व्यक्ति की काम एवं अर्थपरक इच्छाएँ बढ़ती हैं, तब वह अधिक से अधिक सुख-सुविधा एवं विलासिता की माँग करता है और इस उपक्रम में समाज के अन्य सदस्यों के साथ अनुचित व्यवहार भी करता है। इससे सामाजिक विषमताएँ उत्पन्न होती हैं।
समाज-प्रबन्धन के लिए जैनाचार्यों ने इन इच्छाओं को मर्यादित एवं नियंत्रित करने के लिए
26
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
516
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org