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उसका सामाजिक - प्रबन्धन भी विफल हो जाता है, अतः उसे चाहिए कि वह इस प्रकार से अपनी सामाजिक क्रियाएँ करे कि जिससे पारिवारिक, धार्मिक एवं लौकिक संस्था में जीते हुए सामाजिक-संगठन अर्थात् समाज - प्रबन्धन को मजबूती मिल सके। वह सदैव स्मरण रखे कि उसके व्यवहार से तीन उद्देश्यों की सम्पूर्ति होती रहे .
★ समाज में उचित शान्ति रहे ।
★ सुसंस्कारों का संवर्द्धन हो ।
★ समाज में सभी की प्रगति होती रहे ।
आगे, इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जैनदृष्टि के आधार पर कुछ बिन्दु दिए जा रहे हैं, जिनका पालन करके व्यक्ति सफलतापूर्वक समाज - प्रबन्धन कर सकता है
1) सप्तव्यसन वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन का सम्पूर्ण विनाश कर देते हैं, अतः इनका सेवन बिल्कुल नहीं करना ।
2) सदैव न्याय - नीतिपूर्वक अर्थ का उपार्जन करना ।
3) शिष्टता समाज का श्रृंगार है, अतः सबसे शिष्ट व्यवहार करना ।
4) समान आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान वाले परिवार में ही वैवाहिक सम्बन्ध करना ।
पाप करके भयभीत होने के बजाय पाप करने में भयभीत रहना ।
6) देश और राष्ट्र के प्रति गौरव रखना और देशाचार का उल्लंघन कभी नहीं करना ।
7) समाज में क्लेश और कलह करने वाली निन्दा कभी नहीं करना ।
8) अज्ञानी एवं दुर्जनों की संगति से बचना, इससे वैर बढ़ता है। 86
9) सद्विचारवान् सज्जनों की संगति सदैव करना ।
10 ) माता - पिता की सेवा करना, जो कुछ अर्जित करें, उन्हें ही समर्पित करना और उनकी सलाह के बिना कोई कार्य नहीं करना ।
11) सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन के अनुकूल वातावरण वाले स्थान पर रहना ।
12) समाज में निन्दा और घृणा हो, ऐसे निन्दनीय कार्य कभी नहीं करना ।
13) आय कम और व्यय अधिक का सिद्धान्त अपनाकर जीवन को अस्त-व्यस्त नहीं बनाना ।
14 ) हैसियत न होने पर भी फैशन में पड़कर बहुमूल्य एवं चटकीले भड़कीले वस्त्र पहनने के बजाय सादगीपूर्ण वस्त्र पहनना ।
15) विचार और व्यवहार को निर्मल करने वाले धर्मोपदेश का श्रवण स्वयं भी करना अन्यों को भी
कराना ।
16) स्वाद के लिए नहीं, अपितु स्वास्थ्य के लिए भोजन करना, जिससे अकारण बीमारी न हो एवं परिजनों को उपचार आदि के लिए व्यर्थ भाग-दौड़ न करनी पड़े।
17 ) धर्म, अर्थ और काम में परस्पर समन्वय रखना, जिससे हमारा हर व्यवहार नैतिक एवं सामाजिक
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अध्याय 9: समाज- प्रबन्धन
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