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एक-दूसरे के विचारों को उचित सम्मान देने की शिक्षा देती है। वस्तुतः, यह ऐसी दृष्टि देती है, जिससे विपक्ष की धारणाओं में भी सत्यता के दर्शन हो सके और उनको स्वीकार कर प्रजातन्त्र को मजबूत किया जा सके।
कौटुम्बिक क्षेत्र में भी इस पद्धति का उपयोग कर पारस्परिक प्रेम एवं शान्ति की स्थापना आसानी से की जा सकती है। अपने अनुभव, रुचि, उद्देश्यों, नीतियों एवं विचारों को दूसरों पर थोपने की आदत संघर्ष और मनमुटाव को जन्म देती है और इसी प्रकार दूसरों के विचारों के अनुसार अपने आपको न मोड़ पाने की आदत भी कुटुम्ब में क्लेश-कलह कराती है, किन्तु यदि व्यक्ति सहिष्णुता की दृष्टि से दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयत्न करे, तो संघर्ष आसानी से समाप्त हो सकते हैं। अनेकान्त यह कहता है कि जब हम दूसरे के सम्बन्ध में कोई विचार करें या निर्णय लें, तो हमें स्वयं को उस स्थिति में खड़ा करके चिन्तन करना चाहिए।
इस प्रकार, अनेकान्त-दृष्टि को अपनाकर मानवजाति के वैचारिक संघर्षों को आसानी से समाप्त किया जा सकता है। (6) स्वार्थ, परार्थ एवं परमार्थ का पारस्परिक सामंजस्य और सामाजिक-प्रबन्धन -
सामाजिक-प्रबन्धन के लिए तीन जीवन-लक्ष्यों के बीच उचित समन्वय स्थापित करना अत्यावश्यक है। ये तीन जीवन-लक्ष्य हैं - 1) स्वार्थ (स्वहित) – वैयक्तिक सांसारिक हित का लक्ष्य। 2) परार्थ (लोकहित) – दूसरों के भौतिक एवं आध्यात्मिक हित का लक्ष्य। 3) परमार्थ (आत्महित) - स्वार्थ और परार्थ से ऊँचा उठकर आत्मा के हित का लक्ष्य ।
जैनधर्मदर्शन एक निवृत्तिपरक आध्यात्मिक परम्परा है, अतः इसके सन्दर्भ में एक भ्रामक दृष्टिकोण बन जाता है कि यहाँ स्वार्थ और परार्थ के लिए कोई स्थान नहीं है, परन्तु यह उचित नहीं
जहाँ तक स्वहित एवं लोकहित का प्रश्न है, जैनधर्म में निश्चित ही लोकहित को उत्तम माना गया है। तीर्थकर-नमस्कारसूत्र (शक्रस्तव) में तीर्थंकरों के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, लोकप्रद्योतकर, अभयदाता आदि विशेषणों का प्रयोग जैनदृष्टि की लोक-मंगलकारी भावना को पुष्ट करता है। स्वयं तीर्थकर भगवन्तों के बारे में कहा जाता है कि पूर्व भव में ‘सवि जीव करुं शासन रसी' अर्थात् समस्त जीवों को सन्मार्ग (मोक्षमार्ग) में जोड़ने की उदात्त भावना उनके मन में संचरित होती है,72 तभी तीर्थकर पद के योग्य कर्मों का उपार्जन होता है। जैनाचार्य समन्तभद्र भी वीरजिनस्तुति में कहते हैं? - हे भगवन्! आपकी यह संघ-व्यवस्था (समाज-व्यवस्था) सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करने वाली और सबका कल्याण करने वाली है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी कहा गया है कि भगवान् का यह उपदेश संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। इसी सूत्र में
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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