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सम्यग्दृष्टि जीव अपने अधिकारों की भूख को उपशान्त रखता हुआ कर्तव्यों का उचित निर्वाह करता है। वह भले ही कुटुम्ब में क्यों न रहे, उसकी स्थिति धाय माँ (नर्स) के समान ममत्व-रहित कर्तव्यभाव की होती है। कहा भी गया है -
सम्यग्दृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल ।
__ अन्तरसुं न्यारो रहे, ज्यों धाय खिलावे बाल ।। जीवन-प्रबन्धक को चाहिए कि वह संसार में संयोगजन्य परिस्थितियों में अनुकूल-प्रतिकूल , सुख-दुःख एवं अच्छे-बुरे का भेद न करते हुए निरपेक्ष (तटस्थ) भाव से जीने का अभ्यास करे। उसे ममत्व-बुद्धि (Sense of Attachment) के बजाय कर्त्तव्य-बुद्धि (Sense of duty) से जीना चाहिए।
इस प्रकार, जैन साधना पद्धति सम्यक् दृष्टिकोण के विकास के द्वारा न केवल जीवन और जगत् के यथार्थ स्वरूप का बोध कराती है, अपितु अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थिति में अविचलित भाव अर्थात् समभाव से जीना भी सिखाती है। (4) सद्भावनाएँ एवं सामाजिक-प्रबन्धन - समाज में दूसरे लोगों के साथ हमारा सम्बन्ध किस प्रकार का हो, यह विवेक भी हमें जैनाचार्यों द्वारा उपदिष्ट विविध भावनाओं' से प्राप्त होता है। ये भावनाएँ हमारे निषेधात्मक भावों का समापन करके विधेयात्मक भावों का विकास करती हैं। जैनाचार्य अमितगति ने इन भावनाओं को निम्न शब्दों में अभिव्यक्त किया है -
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थ भावो विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु दैवम्।। अर्थात हे देव ! मेरी आत्मा सदैव ही प्राणीमात्र के प्रति मैत्री, गुणीजनों के प्रति प्रमोद (आनन्द), दीन-दुःखियों के प्रति करुणा तथा विपरीत प्रवृत्ति वालों के प्रति मध्यस्थता के भावों को धारण करे।
ये भावनाएँ पारिवारिक, धार्मिक एवं लौकिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बन्धों को सुमधुर बनाने तथा सामाजिक टकराव के कारणों को दूर करने में अत्यन्त उपयोगी हैं। (क) मैत्री - यह भावना दूसरों के हित के चिन्तन से जुड़ी हुई भावना है। परिवार और समाज में अपने वैयक्तिक हित के लिए तो सभी प्रयत्नरत रहते हैं, किन्तु मैत्री वह पवित्र भावना है, जिसमें व्यक्ति अपने स्वार्थ को गौण करके दूसरे के हित की चिन्ता करता है। इससे सामाजिक संगठन सुदृढ़ होता है, जिसे कोई तोड़ नहीं सकता। (ख) प्रमोद - यह भावना दूसरों की प्रगति में आनन्दित होने से सम्बन्धित है। यदि समाज में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के गुणों को स्वीकार कर ले, तो निन्दा, चुगली, ईर्ष्या, मात्सर्य , दोषारोपण आदि के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा और संगठन मजबूत बनेगा। वस्तुतः, प्रमोदभावना से गुणियों के प्रति
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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