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बहुमान भाव जगता है, उनका अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती है एवं अल्पगुणी व्यक्ति भी उत्थान और प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। कहा भी गया है68 -
जिन उत्तम गुण गावतां, गुण आवे निज अंग (ग) करुणा - यह वस्तुतः हृदय में व्याप्त क्रूरता के विसर्जन से जुड़ी हुई भावना है। जिस संगठन में व्यक्तियों में एक-दूसरे के दुःखों के प्रति संवेदनशीलता नहीं होती, उस संगठन में परस्पर सहयोग एवं समन्वय की भावना भी सूख जाती है, अतः करुणा भावना का विकास आवश्यक है। यह परस्पर प्रेम और विश्वास की जन्मदात्री है तथा संगठन को मजबूती प्रदान करने वाली भावना है। (घ) मध्यस्थ - यह विपरीत व्यवहार वालों के प्रति तटस्थ होने की भावना है। यह सम्भव नहीं है कि संगठन में सभी समान मनोवृत्ति वाले ही हों, कई लोग विघ्न-सन्तोषी, कुतर्कवादी, कदाग्रही एवं असभ्य व्यवहार करने वाले भी होते हैं। समाज में इनके साथ भी जीना तो पड़ता ही है। यदि व्यक्ति रोष एवं आक्रोश के साथ इनका प्रतिकार करे, तो परिणाम प्रायः दुःखद होता है, अतः प्रतिकूल संयोगों में तटस्थ (Neutral) या अपेक्षारहित रहना ही सही व्यवहार है। इससे संगठन विघटित होने से बच जाता है। (5) अनेकान्त एवं सामाजिक-प्रबन्धन - जैनदर्शन का अनेकान्त सिद्धान्त सामाजिक क्षेत्र में वैचारिक सहिष्णुता के रूप में सामने आता है। यह समाज में अनाग्रहपूर्वक जीने की कला सिखाता है
और इस भ्रान्ति का निराकरण करता है कि सत्य मेरे ही पास है, दूसरे के पास नहीं। वस्तुतः, यह सिद्धान्त कहता है कि सत्य जहाँ कहीं भी हो, उसका सम्मान करना चाहिए।
अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा जीवन-प्रबन्धक व्यापक दृष्टि से वस्तु, व्यक्ति, घटना एवं परिस्थिति का मूल्यांकन करता है और पक्षाग्रह के बन्धन से मुक्त हो जाता है। वह स्वीकार लेता है कि जहाँ स्वमत की प्रशंसा और परमत की निन्दा है, वहाँ विग्रह, विषाद और वैमनस्य के अतिरिक्त कुछ नहीं है। वस्तुतः, वैचारिक आग्रह ही मतवाद या पक्षपात को जन्म देता है और उससे राग-द्वेष की वृद्धि होती है। अतः जैनदष्टि के अनुसार, सत्य की स्वीकृति 'ही' के बजाय 'भी' से करनी चाहिए। आशय यह है कि सत्य को एकान्त से नहीं, अपितु अनेकान्त से ग्रहण करना चाहिए। इसी के आधार पर आज धार्मिक, राजनीतिक एवं पारिवारिक सहिष्णुता का विकास किया जा सकता है।
___ धार्मिक सहिष्णुता एवं समन्वयता विभिन्न धर्म-संप्रदायों एवं मतों में व्याप्त वैचारिक विद्वेष, हिंसा एवं अशान्ति को समाप्त कर सत्य तत्त्वों का दर्शन कराती है। सभी धर्मों एवं दर्शनों के प्रति सहिष्णु होना ही एक सच्चे जैनी की पहचान है। परमयोगी सन्त आनन्दघनजी कहते हैं -
षड्दर्शन जिन अंग भणीजे, न्यास षडंग जे साधे रे।
नमि जिनवरना चरण उपासक, षड्दर्शन आराधे रे।। राजनीतिक क्षेत्र में भी अनेकान्त दृष्टि विरोधी पक्षों के बीच में आलोचनात्मक पद्धति को दूर कर
अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन
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