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उसने सामाजिक-तन्त्र की स्थापना सिर्फ इसीलिए की है कि वह विकास एवं सुधार की दिशा में आगे बढ़ सके। यदि वह उचित प्रगति नहीं कर पाता है, तो समाज की स्थापना ही उद्देश्यविहीन हो जाएगी और मनुष्य की स्थिति पशुवत् हो जाएगी।
इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समाज-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक पक्षों को समझना आवश्यक है। 9.4.3 जैनआचारमीमांसा के आधार पर समाज-प्रबन्धन का सैद्धान्तिक पक्ष
समाज-प्रबन्धन का मूल आशय है – व्यक्ति के सामाजिक व्यवहारों को परिष्कृत करना। परन्तु जैनाचार्यों के अनुसार, केवल बाह्य नियन्त्रण अर्थात् दण्डादि के भय से यह परिष्कार नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार, जब विवेकयुक्त ज्ञानदशा प्रकट होती है, तभी व्यक्ति का सही सामाजिक लक्ष्य निर्धारित होता है और इसके बल पर ही उसके सामाजिक मूल्यों एवं व्यवहारों में सुधार हो पाता है। किसी जैन मुनि ने कहा है -
ज्ञान रहित किरिया करी, कास-कुसुम उपमान।
लोकालोक-प्रकाशकर, ज्ञान एक परधान।। ज्ञान रहित किया गया आचरण आकाश-कुसुम के समान होता है, जिसका कोई सार्थक मूल्य नहीं होता। यह ज्ञान ही है, जो सकल ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करने में समर्थ है।
आइए, समाज-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक पक्षों को जानें। (1) सामाजिक चेतना का सम्यक् विकास होना - जब तक व्यक्ति व्यक्तिवादी दृष्टिकोण रखता है, तब तक समाज–प्रबन्धन केवल एक कल्पना है। समाज-प्रबन्धन की पहली शर्त है कि व्यक्ति उचित सामाजिक चेतना का विकास करे। यह चेतना उसके जीवन की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में स्वीकृत हो और इसी आधार पर वह सामाजिक व्यवहार करे।
जैन-परम्परा में सदैव ही व्यक्ति से अधिक संघ को महत्त्वपूर्ण माना गया है। जैनाचार्यों ने संघ को अनेक उपमाओं से विभूषित कर उसकी स्तुति की है। कभी संघ को नगर के समान बताया है, जो गुणरूपी भवनों, ज्ञानरूपी रत्नों, सदृष्टि रूपी गलियों और संयमरूपी परकोटे से सुरक्षित है, तो कभी संघ को समुद्र से उपमित किया है, जो धैर्यरूपी गुणों से वृद्धिगत, स्वाध्याय एवं शुभकार्य रूपी महाशक्तिशाली कर्मविदारक मगरमच्छों से युक्त तथा समस्त कठिनाइयों में भी निश्चल और निष्कम्प है। इसी प्रकार संघ को कभी तेजस्वी सूर्य की, कभी सौम्यचंद्र की, कभी चक्रवर्ती के चक्ररत्न की, तो कभी मधुर घोषमय रथ की उपमाओं से भी अलंकृत किया है। जैनाचार्यों ने सदैव ही संघ के उत्थान और कल्याण की मंगल भावना की है।
वस्तुतः जैनाचार्यों की दृष्टि में संघ या समाज के प्रति सभी का पूर्ण बहुमान एवं समर्पण होना
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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