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हुए आध्यात्मिक सत्पुरूष श्रीमद्देवचन्द्र जी ने कहा भी है -
गच्छ कदाग्रह साचवे रे, माने धर्म प्रसिद्ध ।
आतमगुण अकषायता रे, धर्म न जाणे शुद्ध रे।। जहाँ एक ओर धर्म के नाम पर अन्ध समर्पण होने से सामाजिक विघटन हो रहा है, वहीं दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर लोगों को धर्मविमुख करने का प्रयास भी खूब बढ़-चढ़कर हो रहा है। आज शासन या प्रशासन के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि प्रत्येक नागरिक को नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों के लिए प्रेरित किया जा सके। इसी वजह से आज हमारा समाज मूल्य एवं आदर्शों से शून्य होता जा रहा है। साथ ही व्यक्ति में राष्ट्रीयता, सामुदायिकता एवं पारिवारिकता की भावना समाप्त होती जा रही है और केवल व्यक्तिवादी मनोवृत्ति दृढ़ होती जा रही है। (10) मद्यपान एवं मादक द्रव्यों का व्यसन (Alcohol & Drug Addiction) – यह भी एक घातक सामाजिक समस्या है। यद्यपि यह महज वैयक्तिक समस्या ही है, तथापि इसके कारण परिवार और समाज दोनों का नुकसान होने से इसे सामाजिक समस्या कहना ही उचित है। आज पुरूषों के साथ-साथ स्त्रियों में भी मद्यपान की आदत बढ़ रही है। इसी प्रकार निम्नकुलों के साथ-साथ उच्चकलों के लोगों में भी मद्यपान एक फैशन बनता जा रहा है। विशेष त्यौहारों एवं उत्सवों में शराब खूब परोसी जाती है।
महाकवि कालिदास ने जब एक मदिरा बेचने वाले से पूछा – 'तुम्हारे पात्र में क्या है?' तब उसने दार्शनिक अन्दाज में कहा – 'कविवर! मेरे पात्र में आठ दुर्गुण हैं - 1) मस्ती, 2) पागलपन, 3) कलह, 4) बुद्धि का नाश, 5) सच्चाई और योग्यता से नफरत, 6) खुशी का नाश, 7) नरक का मार्ग एवं 8) धृष्टता। कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा है - आग की नन्ही-सी चिनगारी भी विराट् घास के ढेर को नष्ट कर देती है, वैसे ही मद्यपान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, क्षमा आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। (11) निर्धनता - यह भी सामाजिक विघटन का एक महत्त्वपूर्ण रूप है। निर्धनता के कारण न केवल परिवार की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती, अपितु बाल-अपराध, आत्महत्या, विवाह-विच्छेद, चोरी-डकैती आदि प्रवृत्तियों को बढ़ावा भी मिलता है।52 गरीबी से पीड़ित व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताएँ भी कमजोर हो जाती है। वह असमय ही रोगों से ग्रस्त भी हो जाता
(12) बाल-अपराध - इन दिनों बाल-अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं। धन पाने के लिए ये बाल अपराधी चोरी, जेबकतरी आदि असामाजिक कार्य करने के लिए तैयार हो जाते हैं। सन् 1982 में देश में लगभग पचास हजार से अधिक बाल-अपराध के केस थे, जो अदालत के समक्ष विचारार्थ पेश किए गए थे। यह समझा जा सकता है कि आज यह संख्या कई गुना अधिक हो चुकी होगी।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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