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मान्यता को सिद्ध करता है कि जल के आश्रित अनेक अदृश्य (इंद्रिय-अगोचर) त्रस जीव मौजूद होते हैं।11 जैनाचार्यों ने इस प्रकार जल को सिर्फ भौतिक ही नहीं, अपितु जैविक महत्त्व भी दिया। इसी आधार पर उन्होंने मनुष्यों को इन जल के जीवों के प्रति आत्मवत् दृष्टिकोण अपनाने एवं इनकी हिंसा अर्थात् इनका प्रदूषण एवं अपव्यय रोकने की सम्यक् प्रेरणा दी है।
आज सुविधावादी दृष्टिकोण के प्रवाह में एक व्यक्ति प्रतिदिन लगभग 500 लीटर जल का दुरुपयोग कर रहा है, जबकि वह चाहे तो 15-20 लीटर में भी अपनी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है। जैन-परम्परा में आज भी साधु-साध्वी प्रतिदिन 6-8 लीटर जल से ही आनन्दपूर्वक जीवन-यापन कर लेते हैं।172
इसका कारण यह है कि जैन साधु-साध्वी को स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वे जलकायिक जीवों की मन-वचन-काया से न स्वयं हिंसा करें, न हिंसा कराएँ और न ही हिंसा का अनुमोदन करें। आचारांग में तो स्पष्ट कहा है कि पीने के लिए अथवा स्नानादि शरीर शुद्धि के लिए भी जलकायिक जीवों की अधिक हिंसा करना उचित नहीं है। 173 जैन-परम्परा में तो मुनि के लिए सजीव जल के प्रयोग का ही निषेध है। जैन मुनि केवल उबला हुआ गर्म पानी (तप्तप्रासुक जल) अथवा अन्य किसी साधन से निर्जीव हुआ जल ही ग्रहण कर सकता है। पूर्व में किसी कार्य में प्रयोग करने के पश्चात् बचे अपशिष्ट जल को शुद्ध कर वह प्रयोग कर सकता है अर्थात् सामान्य उपयोग के लिए वह ऐसा निर्जीव जल भी ले सकता है, जिसका उपयोग गृहस्थ कर चुका है और उसे बेकार मान कर फेंक
रहा है। 175
जैन–परम्परा में सिर्फ साधु-साध्वी के लिए ही नहीं, अपितु गृहस्थों के लिए भी जलकायिक जीवों की हिंसा अर्थात् जल का दुरुपयोग न करने की प्रेरणा दी गई है। जैनआचारपरम्परा में जैन साधु-साध्वी अक्सर पानी का प्रदूषण रोकने के लिए गृहस्थों को नियम देते हैं, जैसे - नदी, कुएँ आदि में स्नान न करें, स्नान में आधी बाल्टी से अधिक पानी का उपयोग न करें इत्यादि।76
जैन-परम्परा में आवश्यकता से अधिक जल के उपभोग को अनर्थदण्ड क्रियाओं में सम्मिलित कर उन्हें अनुचित एवं त्याज्य कहा गया है। उपासकदशांगसूत्र में उपभोग-परिभोग योग्य इक्कीस वस्तुओं (श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्र में 26 वस्तुओं) की मर्यादा निश्चित करने के लिए कहा गया है, इनमें से निम्नलिखित मर्यादाएँ जल के अपव्यय एवं प्रदूषण को रोकती हैं -
★ स्नान विधि – इसमें स्नान के लिए पानी की मर्यादा निश्चित की जाती है। 178 ★ उद्वर्तन विधि – इसमें शरीर पर लगाई जाने वाली उबटन (साबुन आदि) की मर्यादा निश्चित
की गई है, इससे परोक्ष रूप से पानी का अपव्यय कम हो जाता है। ★ पानीय विधि – इसमें पीने के पानी की मर्यादा की गई है, इससे जूठा पानी फेंकने या छोड़ने पर नियन्त्रण हो जाता है। 180 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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