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8.7 निष्कर्ष
इस अध्याय में हमने यह पाया कि हम मानवों को प्रकृति के उपहारस्वरूप 'पर्यावरण' की प्राप्ति हुई है। इसके अन्तर्गत षड्जीवनिकायों का समावेश हो जाता है पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं स जीव । चूँकि मानव सभी प्राणियों में सर्वाधिक सामर्थ्यवान् है, अतः वह पर्यावरण का विकास और विनाश दोनों करने में सक्षम है।
प्रकृति अर्थात् पर्यावरण के प्रति मानव चार प्रकार का व्यवहार कर सकता है 240
★ प्रकृति का पोषण
★ प्रकृति का प्रदूषण
★ प्रकृति का दोहन
★ प्रकृति का शोषण
जैनाचार्यों के अनुसार, हम प्रकृति का सम्यक् पोषण और सीमित दोहन तो करें, लेकिन शोषण और प्रदूषण नहीं । वस्तुतः, दोहन एवं शोषण बुनियादी अन्तर है। एक सज्जन व्यक्ति यदि गाय पालता है, तो उसका दोहन अर्थात् उपयोग अवश्य करता है, लेकिन उसका उचित पोषण भी साथ में करता है। वह दोहन एवं पोषण में सन्तुलन स्थापित कर लेता है। इसके विपरीत, एक स्वार्थी व्यक्ति गाय का इतना अधिक दोहन करता है कि गाय के प्राण ही निकल जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि दोहन एवं पोषण में सन्तुलन नहीं रह पाता । संक्षेप में कह सकते हैं कि प्रदूषण एवं शोषण में हिंसा की प्रधानता है, तो पोषण एवं दोहन में अहिंसा की । जैनाचार्यों ने सदा, सर्वत्र एवं सर्वथा अहिंसा आधारित जीवनशैली की पवित्र प्रेरणा दी है। यदि वैयक्तिक जीवन में इस शैली को आत्मसात् किया जाए, तो पर्यावरण एवं स्वयं मानव के अस्तित्व पर मंडराता खतरा हट सकता है।
जो विवेकशील मानव प्रभु महावीर के उपदेशों को जीवन-व्यवहार में लाने के लिए स्वयं को तैयार करेगा, उसकी अन्तर्भावना निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त की जा सकती है।
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बहे । ।
मैत्री भाव जगत् में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे । दीन दुःखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा स्रोत दुर्जन क्रूर कुमार्ग रतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे | साम्य भाव रखूँ मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ।। ईति-भीति व्यापे नहीं जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे । धर्मनिष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे ।। रोग मरी दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करे । परम अहिंसा धर्म जगत् में, फैल सर्वहित किया करे ।।
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जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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