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हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि समाज ही आत्माभिव्यक्ति का प्रेरक तत्त्व है।
इस प्रकार, आज जो सामाजिक व्यवस्थाओं की उपेक्षा दिखाई दे रही है, यह उचित नहीं है, क्योंकि जैसे व्यक्ति के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, वैसे ही समाज के बिना व्यक्ति का जीवन-यापन नहीं हो सकता। वस्तुतः, व्यक्ति का जीवन समाज से अत्यन्त प्रभावित है। अतः उसे सामाजिक-प्रबन्धन को जीवन का आवश्यक एवं अनिवार्य दायित्व मानना चाहिए। उसे यह महसूस करना होगा कि समाज के हित में व्यक्ति का हित और व्यक्ति के हित में समाज का हित होता है। समाज और व्यक्ति के पारस्परिक कर्तव्य
__ उपर्युक्त दृष्टि के आधार पर पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन है कि 'व्यक्ति के व्यक्तित्व के परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में उसका एक स्थान बनता है और उस स्थान के अनुरूप उसके कुछ दायित्व भी होते हैं। 13
सामाजिक-प्रबन्धन के लिए ये आवश्यक है कि व्यक्ति सामाजिक-व्यवस्था के अन्तर्गत अपने स्थान को समझकर अपने दायित्वों का पालन करे। अतः सम्यक् समाज-प्रबन्धन के लिए यह जानना आवश्यक है कि व्यक्ति और समाज का पारस्परिक कर्त्तव्य किस प्रकार का है?
वस्तुतः जैनदृष्टि के अनुसार, समाज से पृथक् व्यक्ति का कोई स्थान नहीं होता और व्यक्तियों से पृथक् समाज का कोई अस्तित्व नहीं होता। ये दोनों मूल्य-केन्द्रित व्यवस्था के द्वारा एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े रहते हैं। इन्हें एक-दूसरे से पृथक् देखा तो जा सकता है, लेकिन पृथक् किया नहीं जा सकता। आज जो सामाजिक अव्यवस्था दिखाई दे रही है. उसका मल कारण ही यह है व्यक्ति सामाजिक-मूल्यों और आदर्शों को एक ओर रखकर मात्र अपनी स्वार्थपूर्ति में लगा हुआ है। वस्तुतः, यह उचित होगा कि व्यक्ति अपने स्वहित का ध्यान तो रखे, किन्तु लोकहित से निरपेक्ष होकर स्वहित करने का प्रयास न करे। जैन अनेकान्त-दृष्टि यह मानती है कि सफल सामाजिक जीवन के लिए स्वहित और परहित दोनों सापेक्ष हैं, जो एक-दूसरे पर निर्भर हैं। तदनुसार, सामाजिक अव्यवस्था के दुष्परिणाम व्यक्ति को भुगतने पड़ते हैं और व्यक्ति की स्वार्थमयी दृष्टि सामाजिक-व्यवस्था को चूर-चूर कर देती है। जैनदर्शन का यह कहना है कि व्यक्ति समाज का घटक है, अतः उसे चाहिए कि वह स्वहित के साथ समाजहित का उचित समन्वय करे, वह समाज में अपने स्थान (Status) को सम्यक्तया समझे और अपने स्थान के अनुरूप अपने उचित कर्त्तव्यों का भी पालन करे।
इस प्रकार, जैनधर्म निवृत्ति-परक होते हुए भी संघीय-धर्म है। इसकी मान्यता यह है कि व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष हैं और जो सामाजिक मूल्य हैं, उनमें न केवल समाज का हित है, अपितु व्यक्ति का भी हित समाहित है, क्योंकि व्यक्ति और समाज अन्योन्याश्रित हैं।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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