________________
संक्षिप्त में, समाज पर धर्म के प्रभाव निम्न बिन्दुओं से परिलक्षित होते हैं - 1) धर्म सामाजिक सद्भावनाओं को प्रोत्साहन देता है। 2) धर्म सामाजिक नियन्त्रण का महत्त्वपूर्ण साधन है। 3) धर्म समाज कल्याण (सेवा) की दिशा में प्रेरित करता है। 4) धर्म मानव-सन्तोष का शक्तिशाली माध्यम है। 5) धर्म कलात्मक अभिरुचियों का प्रेरणा स्रोत है।
प्रत्येक धार्मिक संस्था को उसके मूलभूत घटकों (अनुयायियों) के आधार पर पहचाना जाता है। वस्तुतः, वे सभी व्यक्ति, जो किसी धर्मविशेष (हिन्दु, बौद्ध, जैन आदि) की दार्शनिक मान्यताओं, आचार-नियमों, उपासना पद्धतियों के प्रति निष्ठावान् होते हैं, धार्मिक संस्था के घटक बन जाते हैं। उदाहरणार्थ, जैन-परम्परा में धर्म के दो मुख्य विभाग हैं – क) अनगार धर्म अर्थात् मुनि धर्म या श्रमण धर्म और ख) आगार धर्म अर्थात् गृहस्थ धर्म या श्रावक धर्म। 33 इन धर्मों का पालन करने वाले निष्ठावान् अनुयायियों को जैनधर्म में श्रमण, श्रमणी, श्रावक एवं श्राविका कहा जाता है।
वस्तुतः ये चारों पृथक्-पृथक् न होकर परस्पर सम्बन्धित होते हैं और उदारभावों से नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास में एक-दूसरे के सहयोगी बनते हैं। यद्यपि साधना के स्तर की अपेक्षा श्रमण-श्रमणी श्रेष्ठ हैं और श्रावक-श्राविकाओं को प्रतिबोध (हितोपदेश) देते हैं, तथापि श्रावक-श्राविका भी उन्हें साधनानुकूल सहयोग प्रदान करते हैं और इसीलिए ये उनके माता-पिता के तुल्य माने जाते हैं। इस प्रकार ये चारों घटक - श्रमण, श्रमणी, श्रावक एवं श्राविका , जो चतुर्विध संघ कहलाते हैं,5 जैनधर्म परम्परा के आधार-स्तम्भ हैं। इन्हें जीवन्त धर्मतीर्थ की उपमा भी दी गई है।
प्रत्येक धार्मिक संस्था, अपने-अपने अनुयायियों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों की नींव पर टिकी है, जिसमें समय-समय पर कई विकृतियाँ या विसंगतियाँ भी पैदा हो जाती हैं। इनका गहराई से विश्लेषण तथा इनके प्रबन्धन के सूत्रों का विवेचन जैनदृष्टि से आगे किया जाएगा। (3) लौकिक संस्था - यह समाज की तीसरी, किन्तु अत्यन्त व्यापक इकाई है। प्रतिदिन के जीवन में व्यक्ति परिवार एवं धर्म के दायरे के अतिरिक्त भी अनेक व्यक्तियों, संस्थाओं, समितियों आदि से सम्बन्ध बनाता है। ये सभी सम्मिलित रूप से लौकिक समाज कहे जा सकते हैं।
इस लौकिक संस्था के अन्तर्गत अनेक संस्थाएँ होती हैं, जिनसे व्यक्ति का पारस्परिक सम्बन्ध निर्मित होता है, ये इस प्रकार हैं - (क) आर्थिक संस्था - मनुष्य जीवन की अनेक आवश्यकताएँ हैं, जिनकी पूर्ति के लिए व्यक्ति को उत्पादन, विनिमय, वितरण एवं निवेश से सम्बन्धित अनेक आर्थिक कार्य करने होते हैं। इन आर्थिक कार्यों के समुचित संचालन के लिए व्यक्ति उद्योग, व्यापार, सेवा-कार्य, बैंक आदि संस्थाओं का निर्माण करता है।
501
अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org