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यद्यपि परिवार का आकार सीमित है, फिर भी यह सर्वव्यापक (Universal) है, क्योंकि बिना परिवार के किसी भी मानव या मानव-समाज की कल्पना भी असम्भव है। परिवार इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व पर सबसे अधिक प्रभाव परिवार का ही पड़ता है। यही मूल्यों एवं आदर्शों का प्रसार करने वाली संस्था है। इसमें जीने वाले व्यक्ति भले ही संख्या में अल्प हों, किन्तु उनका उत्तरदायित्व असीम होता है, जो कभी-कभी तो मृत्युपर्यन्त बना रहता है।"
आगे, गहराई से इसके सम्यक प्रबन्धन का विवेचन जैनदृष्टिकोण के आधार पर किया जाएगा। (2) धार्मिक संस्था – धर्म समाज की दूसरी महत्त्वपूर्ण इकाई है। इसका अपना एक अतिव्यापक स्वरूप है, कहीं इसके ज्ञानात्मक पक्ष तो कहीं इसके भावात्मक या संकल्पात्मक (क्रियात्मक) पक्ष की चर्चा मिलती है। कहीं यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण का परिचायक होता है तो कहीं सामाजिक दृष्टिकोण
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सामाजिक सन्दर्भ में भी धर्म की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। इसने मानव की सामाजिक प्रवृत्ति को सुदृढ़ किया है। इस धार्मिक विश्वास के साथ कि सब आत्माएँ समान हैं (एगे आया),29 मानव ने आपस में प्रेम, सहयोग एवं सद्भाव से रहना शुरु किया। धर्म उपदेशकों ने मानव को अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की शिक्षा दी और इस प्रकार समाज में भाईचारे की भावना ने जन्म लिया। स्पष्ट है कि धर्म ने मानव के समक्ष कुछ नैतिक और धार्मिक मूल्यों को स्थापित कर सम्पूर्ण मानव-समाज को भावनात्मक एकता के सूत्र में बाँधने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है, जिसका अर्थ है – धारण करना। इस अर्थ में धर्म वह तत्त्व है, जो क्रोध, कलुषता, वैर, वैमनस्य में गिरते हुए प्राणी को रोकता है और शान्ति एवं आनन्द के सन्मार्ग पर ले जाता है। इसी प्रकार अंग्रेजी भाषा में धर्म को रिलीजन' (Religion) कहते हैं, जो लेटिन शब्द रि-लिगेयर (Re-ligare) से बना है। 'रि' का अर्थ है – 'पुनः' और 'लिगेयर' का अर्थ है – 'बाँधना' सामाजिक सन्दर्भ में यह इस बात का द्योतक है कि एकता के सूत्र में बाँधे जाने वाले दो पक्ष मूल रूप में एक ही थे, किन्तु अस्थायी रूप से अलग हो गए, अतः उन्हें पुनः एकसूत्र में जोड़ना ही 'धर्म' है। इस प्रकार 'धर्म' शब्द स्वयं ही एकता और सामंजस्य का सूचक है।"
यद्यपि धर्म के नाम को लेकर हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि अलग-अलग रूप हैं, तथापि धर्म के मूल तत्त्व एक ही हैं। प्रत्येक धर्म में किसी न किसी परमशक्ति (Ultimate power) पर विश्वास किया गया है, सभी में दूसरों के प्रति धार्मिक सहिष्णुता को महत्त्व दिया गया है, प्रत्येक धर्म में मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर, अग्यारी आदि किसी न किसी उपासना स्थल को स्वीकारा गया है, विविध अनुष्ठान एवं कर्मकाण्ड भी सबकी विशेषताएँ हैं, सभी धर्मों में विश्व-भ्रातृत्व की भावना को जगाया गया है (वसुधैव कुटुम्बकम्) और सभी धर्मों का परम-लक्ष्य बुराइयों से मुक्ति और अच्छाइयों की प्राप्ति है।2 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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