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दशवैकालिक में अग्नि को 'हव्ववाहो' कहा गया है, क्योंकि यह ऐसा शस्त्र है, जो एक ओर जीवित प्राणियों का वध करता है, तो दूसरी ओर अजीव संसाधनों का विनाश भी करता है।189 दूसरे शब्दों में, यह पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक घटकों को विनष्ट करके पर्यावरणीय सन्तुलन को बहुत तेजी से भंग करता है। अतः अग्नि का सीमित प्रयोग पर्यावरण सन्तुलन के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
अग्नि के सन्दर्भ में कहा गया है कि यह सब शस्त्रों में से तीक्ष्णतम है। 190 अग्नि की यह भयावहता ही उसके प्रयोग में सावधान रहने का निर्देश देती है। यह भी कहा गया है कि अग्नि सब ओर से दुराश्रय है अर्थात् इसे अपने आश्रित करना दुष्कर है, क्योंकि यह पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उर्ध्व, अधो एवं विदिशाओं में फैलते हुए जीव-अजीव सबको जलाती है।191 अतः इसके प्रयोग से प्रायः पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति एवं अन्य समस्त प्राणी दुष्प्रभावित होते हैं।
जैन-परम्परा में साधु-साध्वियों को स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वे प्रकाश और ताप दोनों के लिए अग्नि का प्रयोग न करें।192 यह भी कहा गया है कि चूंकि अग्नि अन्य जीवों के वध का कारण भी है, इसीलिए अंगार कर्म को दुर्गतिवर्धक जानकर वे जीवन-पर्यन्त ही अग्नि के माध्यम से होने वाली जीवहिंसा का परित्याग करें। 193 आचारांग में तो और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि बुद्धिमान् साधक स्वयं अग्निकाय का प्रयोग न करे, न कराए और न करते हुए का समर्थन ही करे। आज भी यह परम्परा जैन साधु-साध्वियों में प्रचलित है।194
पुनः, गृहस्थ उपासकों को भी अग्नि का अनावश्यक उपयोग नहीं करने के लिए जैनाचार में निर्देश दिए गए हैं।
उपासकदशांगसूत्र में कोयला बनाना, जंगल में आग लगाना आदि 'अंगार कर्म' का स्पष्ट निषेध किया गया है, क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष–परोक्ष रूप से अग्निकाय के जीवों की हिंसा एवं पर्यावरण प्रदूषण होता है।195 इसी प्रकार वनकर्म अर्थात् वन-सम्बन्धी व्यवसाय, जैसे – हरे वृक्ष काटकर लकड़ियाँ बेचना या कोयला बनाकर बेचना इत्यादि भी त्याज्य बताए गए हैं, क्योंकि इसमें भी अग्नि का प्रत्यक्ष–परोक्ष प्रयोग होता ही है।196 इसी प्रकार ‘रसवाणिज्य' अर्थात् मदिरा आदि विकृत रस वाले द्रव्यों का व्यापार भी निषिद्ध है। 197 'दावाग्निदापन' अर्थात् जंगल, खेत आदि में आग लगाने का कर्म भी अनुचित बताया गया है। 198 इन धूम्रोत्पादक कर्मों का निषेध करके ही अग्नि का प्रयोग सीमित किया जा सकता है, जो पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक पदार्थों के संरक्षण के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
जैनाचार में अनावश्यक अग्नि-दोहन को 'अनर्थदण्ड क्रिया' माना जाता है, जो गृहस्थों के लिए भी निषिद्ध बताया गया है।199 सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में निष्प्रयोजन भूमि खोदना, पानी बहाना, अग्नि जलाना, वनस्पति का छेदन करना आदि को प्रमादाचरण कहा गया है एवं इसे अनर्थदण्ड का ही एक प्रकार माना गया है। इसी प्रकार आग लगाने वाले अथवा विस्फोटक अस्त्र-शस्त्र आदि हिंसक-साधनों 44
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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