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आदि में प्रवाहित न करें। 28) कृषि में उतना ही सिंचन करें, जितनी फसल को आवश्यकता है। 29) सरोवर आदि सुखाने का व्यापार न करें। 30) कृषि में रासायनिक खादों के प्रयोग को टालने का प्रयत्न करें, जिससे जल को प्रदूषित होने से
रोका जा सके। 31) बगीचा या लॉन के सिंचन में अत्यधिक जल का उपयोग होता है। इसके बजाए नैसर्गिक रूप
से उगी हुई वनस्पति के संरक्षण को प्राथमिकता दें। 32) यदि बगीचा लगाना ही हो, तो पानी का अपव्यय कम से कम हो, इस हेतु प्रयत्न करें। 33) अपने एवं आसपास के घरों के अपशिष्ट जल को शुद्ध करके भी उसका प्रयोग बगीचे में किया
जा सकता है। 34) उद्योगों की चिमनियों को ऊँचा बनाएँ, जिससे वायुमण्डल में विद्यमान जलीय-कण प्रदूषित न
हो। 35) नल से बाल्टी में पानी भरते हुए इधर-उधर नहीं जाएँ एवं लापरवाही भी नहीं बरते, जिससे
पानी दुलने से बच सकें। 36) बरसात के पानी का भी अधिकाधिक सदुपयोग करें। 8.6.3 अग्नि-संरक्षण
यद्यपि प्राचीनकाल में आज की तुलना में अग्नि–प्रयोग अत्यधिक कम होता था, फिर भी जैनाचार्यों ने अग्नि-स्रोतों के संरक्षण पर विशेष जोर दिया है। यह पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए महत्त्वपूर्ण बात है।
जैनाचार्यों ने अग्नि में भी जैविक-सत्ता को स्वीकार किया है, साथ ही यह माना है कि अव्यवस्थित एवं असावधानी से किया गया अग्नि प्रयोग अन्य जीवों की हिंसा का भी कारण होता है। इसीलिए दशवैकालिकसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि अग्नि सजीव होती है, जिसमें पृथक-पृथक् अस्तित्व वाले अनेक जीव होते हैं।186 अतः जैनाचार्यों की दृष्टि में, अग्नि के जीवों की हिंसा अर्थात् अग्नि का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।187
आचारांग में यह भी कहा गया है कि अग्नि-प्रयोग करने पर केवल अग्नि के जीवों की ही हिंसा नहीं होती, बल्कि जमीन, घास, पत्ते, काष्ठ, गोबर एवं कचरे के आश्रित जीने वाले अनेक त्रस जीव तथा पतंगों के समान अनेक सम्पातिम जीव भी अग्नि में गिर पड़ते हैं। अग्नि में गिरने पर इनके शरीर जल जाते हैं और अन्ततः ये मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इस तरह अग्नि को प्रज्वलित करके अग्निकायिक जीवों के साथ अन्य अनेक प्राणियों की भी हिंसा होती है, इसीलिए जैनाचार्यों की दृष्टि में हमें अग्नि का नियन्त्रित प्रयोग ही करना चाहिए।'
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अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन
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