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है कि हम उसकी अनावश्यक हिंसा या दुरुपयोग से बचें। इस प्रकार आचारांग में आत्म-तुल्य दृष्टि से वनस्पति के संरक्षण का निर्देश दिया गया है।
जैनाचार्यों की यह विशेषता भी रही कि इन्होंने न केवल वनस्पति में विद्यमान जीवन को, अपितु वनस्पति के आश्रित अनेकानेक जीवनरूपों को बचाने के लिए भी उपदेश दिया है, जो पर्यावरणीय सन्तुलन के विकास के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
दशवैकालिक में कहा गया है - वनस्पति की हिंसा अर्थात् वनस्पति का छेदन, भेदन, शोषण एवं अतिदोहन करता हुआ व्यक्ति, उसके आश्रित अनेकानेक दृश्य-अदृश्य, त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा अर्थात् विनाश करता है।16 यह विनाश ही पर्यावरणीय जैव-विविधता के लिए खतरा बन जाता है। अतः दशवैकालिक में इस दोहरी हिंसा को दुर्गतिवर्धक बताया गया है तथा साधक को वनस्पति-समारम्भ नहीं करने का निर्देश दिया गया है। इसी बात को दूसरे स्थान पर अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जैन साधु-साध्वी मन, वचन एवं काया से वनस्पति की हिंसा न करें, न कराएँ और न ही उसका समर्थन करें।218 इसका ही परिणाम है कि वे अपने जीवन में वनस्पति का छेदन, भेदन, शोषण आदि तो दूर, उन्हें स्पर्श भी नहीं करते। संक्षिप्त में कह सकते हैं कि उनकी जीवनचर्या वनस्पति को पूर्ण संरक्षण प्रदान करती है।
जैन गृहस्थों के लिए भी प्राचीन जैनशास्त्रों में अनेक निर्देश दिए गए हैं कि वे हरित वनस्पति का यथाशक्ति सीमित उपयोग करें। कन्द-मूल का भक्षण जैन गृहस्थ के लिए निषिद्ध ही है। इसके पीछे एक तथ्य यह भी रहा कि यदि मनुष्य जड़ों का ही भक्षण करेगा, तो पौधों का अस्तित्व ही खतरे में आ जाएगा और उनका जीवन ही समाप्त हो जाएगा। इसी प्रकार, जिस पेड़ का तना मनुष्य की बाँहों में नहीं आ सकता हो, उसे काटना मनुष्य की हत्या के बराबर कहा गया है।19 गृहस्थ उपासक के लिए 'वनकर्म' अर्थात् वनों की कटाई सम्बन्धी व्यवसाय को निषिद्ध बताया गया है।220 इसी प्रकार 'दावाग्निदापन' अर्थात् जंगल जलाने का व्यवसाय भी अनुचित बताया गया है।21 घरेलु जीवन के विषय में जैन–परम्परा में आज भी पर्वतिथियों में हरित वनस्पति नहीं खाने के नियम का पालन अनेक गृहस्थ करते हैं। इसी प्रकार भोजन के पश्चात् जूठन नहीं छोड़ने का भी नियम है, प्रत्युत थाली धोकर जूठन सहित पानी पीने का नियम है, जिसे अनेक गृहस्थ पालते हैं। आज भी जैनाचार के निष्ठावान् गृहस्थ घास पर चलने को अनुचित मानते हैं। इसी प्रकार निष्प्रयोजन एक पत्ती तोड़ना भी वर्जित है। जैनाचार में स्पष्ट कहा गया है कि निष्प्रयोजन वनस्पति का छेदन, भेदन, दोहन आदि करना 'अनर्थदण्ड क्रियाएँ' होती हैं और ये अनुचित एवं त्याज्य हैं।222
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हम जैन सिद्धान्तों के आधार पर अपनी जीवनशैली में यथाशक्ति निम्नलिखित सुधार करके वनस्पति–संरक्षण में अपना सक्रिय योगदान दे सकते हैं।
1) जैनाचार में निर्दिष्ट जमीकन्द आदि बत्तीस अनन्तकाय का भक्षण न करें।
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अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन
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