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जहाँ तक जैन साधु-साध्वियों के आचार का प्रश्न है, उन्हें स्पष्ट निर्देश है कि वे मन, वचन एवं काया से त्रस जीवों की हिंसा न करें, न कराएँ और न हिंसा का समर्थन ही करें। यह भी स्पष्ट किया गया है कि चूँकि त्रसकाय की हिंसा करते हुए उसके आश्रित अनेक प्रकार के त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा हो जाती है, अतः इसे दुर्गति का कारण जानकर जैन साधु-साध्वी जीवनपर्यन्त त्रसकाय के समारम्भ का त्याग करें।227 वे पात्र, कम्बल, शय्या, मल-मूत्र विसर्जन, भूमि-संस्तारक, आसन आदि का यथासमय प्रमाणोचित प्रमार्जन एवं प्रतिलेखन करें, जिससे किसी भी सूक्ष्म या स्थूल जीव की विराधना अर्थात् हिंसा न हो।29 यह पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है।
सिर्फ जैन साधु-साध्वी ही नहीं, बल्कि गृहस्थ उपासकों को भी त्रसकाय के जीवों की हिंसा नहीं करने का निर्देश दृढ़तापूर्वक दिया गया है। जैनाचार्यों ने गृहस्थ को उसकी भूमिकानुसार अनेकविध नियमों का पालन करने का निर्देश दिया है, जैसे - सप्तव्यसन का त्याग, अष्ट मूलगुणों का ग्रहण, बाईस अभक्ष्य पदार्थों का त्याग, मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों या श्रावक के इक्कीस गुणों का ग्रहण, अणुव्रतों का पालन, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वहन इत्यादि। जैनाचार में सद्गृहस्थ को यह नियम दिया जाता है कि वह संकल्पपूर्वक अर्थात् इरादे के साथ निष्प्रयोजन एवं निरपराध किसी भी त्रस जीव की हिंसा न करे । 229 जैन-परम्परा में आज भी चींटी तक की हिंसा का निषेध किया जाता है। कहा जा सकता है कि जैनाचार में जैव-विविधता को बनाए रखते हुए पर्यावरण-विकास एवं पर्यावरण-स्थिरता के उपयोगी निर्देश दिए गए हैं।
जैनाचार में निर्दिष्ट त्रस-जीवों के संरक्षण हेतु कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर आगे चर्चा की जा रही है - (क) कीटनाशकों का प्रयोग - आज खेती में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का उपयोग बढ़ता जा रहा है, उससे हमारा भोजन, जल, वायु एवं भूमि प्रदूषित होते जा रही है। जैन-परम्परा में गृहस्थ उपासक को खेती की अनुमति तो दी गई है, किन्तु उसमें कीटनाशकों का प्रयोग करने की अनुमति नहीं है, क्योंकि इससे सूक्ष्म-स्थूल अनेकानेक जीवों की हिंसा होती है, जो निषिद्ध है। इसी प्रकार उसके लिए विष-वाणिज्य अर्थात् विषैले रासायनिक पदार्थों का व्यवसाय निषिद्ध है, अतः उसे कीटनाशकों का व्यापार भी कल्पनीय नहीं है।230 इन दिनों बिना रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का प्रयोग किए खेती करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। यहाँ महाराष्ट्र के एक जैन कृषि उद्यमी (Agriculturist) का उदाहरण देना आवश्यक है, जिन्होंने बिना किसी कीटनाशक का प्रयोग किए गोबर, पत्तों आदि से बनी प्राकृतिक खाद द्वारा रिकार्ड उत्पादन कर दिखाया। उनकी पद्धति को भारतीय विशेषज्ञ ही नहीं, किन्तु अन्य कृषि विकसित देशों के विशेषज्ञों ने भी सराहा है। यह पद्धति न केवल हमारे खाद्यान्न को विषमुक्त बनाती है, अपितु पर्यावरणीय प्रदूषण से भी बचाती है।231
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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