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8.5 जैनआचारमीमांसा के परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण प्रबन्धन 8.5.1 पर्यावरण-प्रबन्धन : एक परिचय
यद्यपि पर्यावरण प्राकृतिक नियमों से संचालित होने वाली एक सन्तुलित, समन्वित एवं स्थायी व्यवस्था है, फिर भी मानवीय क्रियाओं से यह असन्तुलित , असमन्वित एवं अस्थिर होती जा रही है। अतः पर्यावरण-प्रबन्धन की आज नितान्त आवश्यकता है, जो मानव और प्रकृति के बीच उचित सामंजस्य स्थापित कर सके।
चूँकि मानव-जीवन अपने पर्यावरण पर आश्रित है और पर्यावरण मानवीय-क्रियाओं का परिणाम है, अतः पर्यावरण की सुरक्षा में मानव को ही अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देने की आवश्यकता है। इससे ही मानव पर्यावरणीय संकटों एवं दुःखों से मुक्त हो सकता है।
इस आधार पर मेरी दृष्टि में, मानव की अमानवीय क्रियाओं को नियन्त्रित करने की वह प्रक्रिया, जिससे पर्यावरण का समुचित संरक्षण किया जा सके, पर्यावरण-प्रबन्धन कहलाती
पर्यावरण-प्रबन्धन का लक्ष्य है – संसाधनों का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग करना और इसीलिए मेरी दृष्टि में, हमें निम्न बिन्दुओं को जीवन-व्यवहार में लाने की आवश्यकता है -
* प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर नियन्त्रण (संयम)। ★ संसाधनों का अल्पातिअल्प अपव्यय। ★ संसाधनों के अनावश्यक उपभोग-परिभोग पर नियन्त्रण। * अपशिष्ट पदार्थों का उचित प्रतिष्ठापन (परिहार/विसर्जन)।
पर्यावरण-प्रबन्धन के सन्दर्भ में कई गम्भीर विचारणाएँ प्रारम्भ हो चुकी हैं। विश्व-स्तर पर यह चेतना जाग्रत हो रही है कि पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त करने के प्रयास अविलम्ब प्रारम्भ होने चाहिए। हालाँकि पर्यावरण विषय का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, फिर भी अल्पसमय में इसकी चिन्ता बहुत बढ़ चुकी है, जो इस समस्या की व्यापकता एवं गम्भीरता का सीधा प्रमाण है।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों के बीच पारस्परिक सन्धियों पर हस्ताक्षर होते रहे हैं और विभिन्न सम्मेलनों का आयोजन होता आया है। पर्यावरण सुरक्षा के लिए आन्दोलनों की शुरुआत विभिन्न क्लबों द्वारा 60 और 70 के दशक में की गई। इनमें 'क्लब ऑफ रोम' एवं 'सहारा क्लब' के नाम उल्लेखनीय हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम प्रयास सन् 1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन में किया गया। सम्मेलन में 'हमारी एकमात्र पृथ्वी' का नारा दिया गया तथा प्रत्येक राष्ट्र को उत्तरदायित्व देते हुए एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने तथा प्रदूषण रोकने के उपायों पर चर्चा की गई। इसके उपरान्त ज्वलन्त समस्याओं के बढ़ने के साथ-साथ इनके प्रति चिन्ताएँ भी बढ़ती गई और सम्मेलनों की श्रृंखला आरम्भ हो गई, जिनमें से कुछ हैं - बनाकोडवर (1976), नैरोबी (1977), टोरंटो (1988), रियो डि जेनरो 22 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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