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इन उद्धरणों से यह भी स्पष्ट होता है कि अपने पर्यावरण का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग करने के लिए भी हम स्वयं जिम्मेदार हैं। इसी कारण से दशवैकालिक में उपदेश दिया गया है कि सजगतापूर्वक (जयणापूर्वक) चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना, आहार करना एवं बोलना चाहिए, जिससे पाप-कर्म का बन्धन न हो अर्थात् संसाधनों का शोषण एवं दुरुपयोग न हो।
इस चर्चा से हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि हम अपने संयम-असंयम, हिंसा-अहिंसा, परिग्रह–अपरिग्रह, स्वच्छन्दता-परतन्त्रता, प्रमाद-अप्रमाद, कोमलता-क्रूरता, दया-निर्दयता, स्वार्थ-निःस्वार्थता, सदाचारिता-दुराचारिता आदि प्रतिपक्षी भावयुगलों में से मानवोचित भावों को अपनाएँ, जिससे पर्यावरण-प्रबन्धन की ओर आगे बढ़ सकें।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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