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परिग्रह आदि असत्प्रवृत्तियों को बढ़ाते जा रहें हैं, यह प्रगति कतई नहीं है। शुभचन्द्राचार्य कहते हैं - 'हिंसा एव दुर्गतेः द्वारम्' अर्थात् हिंसा ही दुर्गति का द्वार है।42 आचारांग में स्पष्ट कहा गया है - यह हिंसा कर्म-बन्धन रूप है, मोह अर्थात् भ्रमरूप है, मृत्युरूप है और नरकरूप है।143 योगशास्त्रकार के अनुसार, 'जो करुणारहित होकर जीवों की हिंसा किया करते हैं, वे मरकर अत्यन्त दुःख देने वाली दुर्गति में जाते हैं।144
आचारांग में दुर्गति में भटकने से बचने के लिए हमें स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि 'हे जीव! पापकर्म (असत्कर्म) न स्वयं करो, न अन्यों से कराओ।145 इसका कारण यह है कि जीव कर्मों का बन्धन करने में तो स्वतन्त्र है, परन्तु उनका फल भोगने के लिए पराधीन है। यह वैसा ही है, जैसे कोई पुरूष स्वेच्छा से वृक्ष पर चढ़ तो जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता
है।146
जैनाचार्यों के अनुसार, 'बुरे कर्मों का फल बुरा एवं अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है। 147 अतः हमें हिंसा, असंयम आदि असत्प्रवृत्तियों से निवृत्त होना चाहिए एवं अहिंसा, संयम आदि सत्प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होना चाहिए। संक्षेप में कहें, तो हमें आशा (इच्छा) एवं स्वच्छन्दता का त्याग करना चाहिए। वस्तुतः, आशा का त्याग हमारे अंतरंग पर्यावरण का एवं स्वच्छन्दता का त्याग हमारे बाह्य पर्यावरण का सम्यक् नियोजन करेगा। (10) आत्म-स्वातन्त्र्य एवं पर्यावरण-प्रबन्धन'48
भगवान् महावीर ने यह उपदेश दिया है कि प्रत्येक प्राणी स्वतन्त्र है। वह किसी ईश्वरीय (या अन्य किसी) शक्ति का अंश या अधीनस्थ नहीं है एवं वह अपने हित-अहित के लिए स्वयं समर्थ है। यह आत्म-स्वातन्त्र्य का सिद्धान्त पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए हमारे उत्तरदायित्व को निर्धारित (स्पष्ट) करता है।149
आज पर्यावरण की समस्या अनियन्त्रित होती जा रही है। क्या इसका नियन्ता ईश्वर है? जैनदर्शन के अनुसार, ईश्वर न जगत् का सृजनकर्ता है, न पालनकर्ता है और न ही संहारकर्ता है।
यदि हम ईश्वरकर्तृत्ववाद को स्वीकारें, तो पर्यावरण-प्रबन्धन में मानवीय योगदान की ही उपेक्षा हो जाती है। इससे पर्यावरण–प्रबन्धन अर्थहीन बन जाता है। भगवान् महावीर ने आत्म-स्वातन्त्र्य एवं पुरूषार्थवाद को प्रतिपादित कर पर्यावरण-प्रबन्धन के प्रयासों की सार्थकता सिद्ध की है।
आत्मस्वातन्त्र्य की स्वीकृतिपूर्वक उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है – 'आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु दोनों है, सुपथगामी आत्मा मित्र है और कुपथगामी आत्मा शत्रु है।' आशय यह है कि अपने उत्थान एवं पतन के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं।150 आचारांग में आत्म-पौरूष को जगाते हुए कहा गया है – 'हे पुरूष! तू स्वयं ही अपना मित्र है, फिर तू बाहर मित्र कहाँ ढूँढता है' अर्थात् क्यों पर की अपेक्षा करता है। तात्पर्य यह है कि जब तुम स्वयं शक्तिसम्पन्न हो, तो पराश्रित जीवन क्यों जीते 457
अध्याय 8 : पयावरण-प्रबन्धन
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