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का नाश करके हम मानव का अस्तित्व भी नहीं बचा सकते।
इस सन्दर्भ में दूसरी जीवन-दृष्टि जैनाचार्यों की रही। आचार्य उमास्वाति ने एक सूत्र दिया - ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' अर्थात् एक जीवन दूसरे जीवनों के सहयोग पर आधारित है। 130 इन्होंने जीवन की सुरक्षा एवं विकास के लिए विनाश के बजाय परस्पर सहयोग को मुख्यता दी। एक-दूसरे के पारस्परिक सहकार या सहयोग पर जीवन-यात्रा चलती है। अतः जीवन के दूसरे रूपों के सहयोगी बनकर ही हम अपना जीवन जी सकते हैं।
जैसे हमें जीवन जीने के लिए अन्न, फल, प्राणवायु आदि की आवश्यकता है, वैसे ही वनस्पति को जीवन जीने के लिए जल, वायु, खाद आदि की आवश्यकता है। वनस्पति से प्राप्त अन्न, फल, प्राणवायु, छाया आदि से हमारा जीवन चलता है, तो हमारे द्वारा प्रदत्त कार्बन-डाई-ऑक्साइड, मल-मूत्र आदि से वनस्पति का जीवन चलता है। अतः हम जीवन चलाने के लिए वनस्पति का सहयोग ले तो सकते हैं, किन्तु वनस्पति का विनाश नहीं कर सकते।
सार रूप में, हम जीवन जीने के लिए दूसरों का सहयोग ले सकते हैं, लेकिन उनके विनाश का हमें कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके विनाश में हमारा विनाश छिपा हुआ है। भक्तपरिज्ञा में इस सन्दर्भ में स्पष्ट कहा है – 'जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ' अर्थात् किसी भी जीव का विनाश करना अपना ही विनाश है और अन्य जीवों पर दया करना अपनी ही दया है। जो जीवन के अस्तित्व का आधार है, उसका विनाश करके हम कैसे जी सकेंगे? अतः ‘उचित सहयोग देना और उचित सहयोग लेना' यही पारिस्थितिकी तन्त्र का आदर्श रूप है। इस प्रकार, यह सहयोगमूलक अहिंसात्मक जीवन-दृष्टि जैनाचार्यों के गहन चिन्तन का एक उदाहरण है एवं पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए पथ-प्रदर्शक है। संक्षेप में कहें, तो ‘एक सबके लिए और सब एक के लिए' (One for all & All for one) ही जैनदर्शन का मूलमंत्र है, जिस पर मानव एवं उसके पर्यावरण का सह-अस्तित्व टिका हुआ है। (8) माधुकरी वृत्ति एवं पर्यावरण-प्रबन्धन132
जैनधर्मदर्शन में अहिंसा का एक आदर्श स्वरूप वर्णित है। किन्तु, यह भी विचारणीय है कि जैनाचार्यों की दृष्टि मे अहिंसा कोरी कल्पना नहीं है, बल्कि पूर्णतया व्यवहार्य है।
आचारांग में साधक को स्पष्ट कहा गया है - प्राणियों को न मारना चाहिए, न उन पर अनुचित शासन करना चाहिए, न उन्हें गुलामों की तरह पराधीन करना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उनके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव करना चाहिए।
यह भी कहा गया है – “जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सबको दुःख प्रिय नहीं है', जो ऐसा जानकर न स्वयं हिंसा करे और न किसी से हिंसा करवाए, वह योगी ही सच्चा 'श्रमण' है। संक्षेप में कहें, तो त्रस एवं स्थावर सभी जीवों की हिंसा न करना ही 'अहिंसा' का पूर्णपालन है।
अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन
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