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जैन-परम्परा में अहिंसा का यह आदर्श साधु-साध्वियों के लिए पूर्ण आचरणीय है, तो गृहस्थों के लिए भी यथाशक्ति आचरणीय है ही।
अहिंसा का यह निर्देश पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए स्वतः उपयोगी है, क्योंकि इससे हमारे प्राकृतिक संसाधनों, जैसे - पृथ्वी, जल, वायु आदि का दोहन अत्यन्त कम हो जाता है। यह
जैनआचारमीमांसा की विशेषता है। (4) आत्मौपम्य-दृष्टि का विकास एवं पर्यावरण-प्रबन्धन
यद्यपि अवस्था की दृष्टि से प्रत्येक प्राणी भिन्न-भिन्न है, जिसमें मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता निरपवाद है, फिर भी मनुष्य का संसार पर एकाधिकार जमाना सरासर अन्याय है। इसका कारण है कि जीवनसत्ता की दृष्टि से मनुष्य में और अन्य किसी प्राणी में लेशमात्र भी भेद नहीं है, सभी आत्माएँ समान हैं।108 भगवतीसूत्र में उदाहरणस्वरूप कहा गया है – हाथी एवं कुन्थुए में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों का मूल स्वरूप समान है। 109 आचारांगसूत्र में विश्व-बन्धुत्व की भावना को जगाते हुए कहा गया है – 'आयओ बहिया पास' अर्थात् 'हे मानव! तुम अपने समान ही सबको देखो'। 110 वस्तुतः यह दृष्टि पर्यावरण–प्रबन्धन के लिए अनिवार्य है, क्योंकि इससे ही अन्तःकरण की निर्दयता एवं निर्लज्जता के स्थान पर सहृदयता, संवेदनशीलता एवं समता की भावना का अभ्युदय होता है. इसे ही 'आत्मौपम्य दृष्टि' कहते हैं। आत्मौपम्य का अर्थ है – संसार में समस्त प्राणियों में आत्मवत् बुद्धि का होना। 111
___ आचारांगसूत्र में कहा गया है कि प्रत्येक जीव को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है। अतः किसी को भी दुःख नहीं देना चाहिए, क्योंकि यह दुःख उसकी अशान्ति और महाभय का कारण है।112 आत्मा को झंकृत करते हुए कहा कि 'रे प्राणी! जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है।113 आशय यह है कि सामान्यतया जिन पृथ्वी, जल, हवा आदि को तुच्छ वस्तु मानकर हम उनका शोषण एवं अपव्यय करते रहते हैं, वे उसी तरह दुःखी और पीड़ित होते हैं, जैसे हम। कल्पना कर सकते हैं कि यदि हम चींटी पर पाँव रखते हैं, तो उसे वैसी ही अनुभूति होगी, जैसे हमारे ऊपर हाथी पाँव रखता हो।
सूत्रकार के भाव स्पष्ट हैं कि मनुष्य जैसा अपने सम्बन्ध में सोचता है, वैसा ही उसे दूसरों के सम्बन्ध में सोचना चाहिए, क्योंकि स्वरूपतः विश्व की समस्त आत्माएँ समान हैं।114 इस समानता को जानकर वह हिंसा से दूर रहे। आत्मौपम्य दृष्टिकोण से युक्त साधक के सन्दर्भ में यह सोचा जा सकता है कि जितना-जितना वह हिंसामुक्त होता जाएगा, उतना-उतना पर्यावरण-संरक्षण स्वयमेव होता जाएगा और यही जैनआचारमीमांसा की विशेषता है।
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अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन
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