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अचेतन-मन में विद्यमान इच्छाओं का अस्तित्व क्यों बना रहता है? इसका कोई स्पष्ट समाधान आधुनिक मनोविज्ञान में नहीं है।
जैनदर्शन में मानसिक विकारों के अंतरंग कारणों अर्थात् पूर्व कर्म-संस्कारों को भी सूक्ष्मता से समझाया गया है। जैनाचार्यों के अनुसार, आत्मा ही मन के सहयोग से पूर्व कर्म-संस्कारों के सहारे मानसिक विकारों अर्थात् कषाय भावों को उत्पन्न करती है। जिस प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान में चेतन-अचेतन मन की परिकल्पना दी गई है, उसी प्रकार जैनदर्शन में भी दो प्रकार के भावों का वर्णन किया गया है। प्रथम बुद्धिपूर्वक किए जाने वाले भाव हैं, जो वर्तमान में व्यक्त होते रहते हैं एवं द्वितीय अबुद्धिपूर्वक किए जाने वाले भाव हैं, जो पूर्व संस्कारवश अव्यक्त रूप में प्रवाहित होते रहते हैं। बुद्धिपूर्वक किए जाने वाले भाव नदी की उस उपरी धारा के समान हैं, जो सतत प्रवाहित होती हुई दृष्टिगोचर होती हैं, जबकि अबुद्धिपूर्वक किए जाने वाले भाव उन निचली धाराओं के समान हैं, जो प्रवाहित होती हुई भी दृष्टि से ओझल रहती हैं। जैनाचार्यों ने इसीलिए अबुद्धिपूर्वक किए जाने वाले भावों को दुःख-हेतुक (कषाय-हेतुक) कहा है139 और आध्यात्मिक साधना के पथिक को बुद्धिपूर्वक एवं अबुद्धिपूर्वक दोनों प्रकार के मनोभावों को जीतने का निर्देश दिया है।
जैनदर्शन में न केवल बुद्धिपूर्वक एवं अबुद्धिपूर्वक होने वाले भावों का उल्लेख किया गया है, अपितु इनके कारणों का भी स्पष्टीकरण दिया गया है। जैनाचार्यों के अनुसार, जीव के भावों का मूल कारण कर्मबन्धन है और कर्मों के अभाव रूप मोक्ष परमसुख की अवस्था है, अतः मोक्ष-प्राप्ति का उपाय करना ही परम हितकारी कर्त्तव्य है।
जैनविचारणा में यह भी कहा गया है कि जीव स्वयं की भूलवश ही शुभाशुभ भाव करता है, जिससे आठ प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्धन होता है। ये कर्म कालान्तर में सक्रिय (उदय) होकर जीवन में तनाव एवं मनोविकार उत्पन्न कराने वाली परिस्थितियाँ निर्मित करते हैं। इनमें से चार अघाती कर्म होते हैं, जिनसे शरीर एवं बाह्य नानाविध सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं तथा चार घाती कर्म होते हैं, जिनसे जीव को अंतरंग परिस्थितियाँ मिलती हैं। ये परिस्थितियाँ मन के सम्यक् प्रबन्धन के अभाव में निम्न प्रकार से जीव को प्रभावित करती रहती हैं। 140
| कर्म । | घाती
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अघाती ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अन्तराय) ( वेदनीय आयुष्य नाम ।। गोत्र * ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म और तज्जन्य तनाव तथा मनोविकार - इन कर्मों के निमित्त से जीव की जानने-देखने सम्बन्धी शक्तियों का ह्रास होता है, जिससे अप्रबन्धित जीवन जीने वाला व्यक्ति अनेक तनाव एवं मनोविकारों को उत्पन्न कर लेता है, जैसे -
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अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन
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