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7.8 निष्कर्ष
मनुष्य के समस्त तनावों और मानसिक विकारों का आधार मन है । यह मन अतिसूक्ष्म होने से चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देता। फिर भी, प्रायः सभी भारतीय दर्शनों और विशेष रूप से जैनदर्शन में मन का अस्तित्व, मन का स्थान, मन के कार्य, मन की अवस्थाओं और आत्मा शरीर एवं मन के पारस्परिक सम्बन्धों का प्रतिपादन किया गया है। इससे न केवल मन के स्वरूप का सम्यक् परिज्ञान होता है, बल्कि मन - प्रबन्धन की प्रक्रिया भी आसान हो जाती है।
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मन भले ही सूक्ष्म हो, किन्तु यह एक अद्भुत शक्तिपुंज है। यह व्यक्ति के समस्त क्रियाकलापों का संचालक भी है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें, तो मन ही बन्धन और मोक्ष का प्रबलतम कारण है। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः । व्यावहारिक दृष्टि से भी इसका महत्त्व अद्वितीय है, क्योंकि जीवन में शिक्षा, समय, वाणी, अर्थ आदि सभी पहलुओं के प्रबन्धन का आधार भी मन ही है। अतः मन को साधना ही सम्यक् साधना है और मन न सधे, तो जीवन में बाधा ही बाधा है।
मन मनुष्य की सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति है, किन्तु मन के सम्यक् प्रबन्धन के अभाव में मनुष्य के आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक जीवन के विकास में अनेक बाधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिन्हें तनाव एवं मनोरोग कहा जाता है। तनाव व्यक्ति की विभावदशा है, जो बदलती हुई परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित न कर पाने का दुष्परिणाम है। दूसरे शब्दों में, तनाव व्यक्ति की वातावरणीय परिवर्तन के प्रति अनुक्रिया है। जिस प्रकार बाह्य दबाव प्राप्त होने पर लोह - पिण्ड में प्रतिरोध स्वरूप विशेष अनुक्रिया होती है, उसी प्रकार व्यक्ति में बाह्य उद्दीपकों का सम्पर्क होने पर तनाव रूप अनुक्रिया उत्पन्न होती है। तनाव के अनेक प्रकार से भेद किए जा सकते हैं, जैसे स्वीकारात्मक - नकारात्मक, उच्च-निम्न आदि । तनाव उत्पन्न होने के साथ ही अंतरंग में क्रोधादि मनोविकारों का प्रादुर्भाव हो जाता है, जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का विघटन हो जाता है और अनेक प्रकार के मनोरोग उत्पन्न हो जाते हैं। मनोविकारों का दुष्परिणाम चरण-दर-चरण बढ़ता जाता है और अन्ततः विकराल रूप धारण कर लेता है |
प्रशस्त - अप्रशस्त,
तनाव एवं मनोविकारों के बहिरंग एवं अंतरंग ये दो कारण होते हैं। बहिरंग कारणों में शारीरिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि कारकों का समावेश होता है, तो अंतरंग कारणों में कर्मजन्य परिस्थितियों के गलत मूल्यांकन से उत्पन्न अज्ञान का ।
तनाव एवं मनोविकारों से बचने के लिए जैनाचार्यों ने बारम्बार मन के संयम (नियंत्रण) पर बल दिया है और इसे ही तनाव एवं मनोविकारों का प्रबन्धन कहा जाना चाहिए। इसके अन्तर्गत जैनाचार्यो ने जो साधना बताई है, उसके प्रमुख उद्देश्य हैं मन को अकुशल विचारों से हटाना एवं कुशल विचारों में लगाना, नकारात्मक विचारधारा को त्यागना एवं सकारात्मक विचारधारा को अपनाना, मन की व्यग्रता को एकाग्रता में परिवर्तित करना, मन की मलिनताओं (संज्ञाओं एवं वासनाओं) को दूर करना, कषायों को क्रमशः मन्दता एवं क्षीणता की ओर ले जाना इत्यादि ।
अध्याय 7: तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन
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