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मानसिक-प्रबन्धन एक महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है, क्योंकि इससे अनेक लाभ प्राप्त होते हैं, जैसे - जीवन की जटिल समस्याओं में भी तनावग्रस्त नहीं होना, पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों का कर्त्तव्य-बुद्धि से निर्वाह करना , जीवन-व्यवहारों के सम्बन्ध में विवेकपूर्वक प्रत्येक निर्णय लेना, तनावजन्य मनोविकारों एवं शारीरिक रोगों से बचना, मानसिक क्षमताओं का सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्यों में प्रयोग करना इत्यादि ।
मानसिक-प्रबन्धन की सफलता के लिए जैनधर्मदर्शन में उन साधनों का प्रयोग करने का निर्देश दिया गया है, जिनके माध्यम से राग, द्वेष, मोह आदि मन्द होते हों और मानसिक-शान्ति एवं प्रसन्नता का अनुभव होता हो। इनसे विपरीत साधनों को बाधक कारणों के रूप में मानकर उनका त्याग करने का निर्देश भी दिया गया है।
मानसिक-प्रबन्धन के सिद्धान्तों को जानना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु जैन-परम्परा में निर्दिष्ट प्रयोगों को अपनी भूमिकानुसार अपनाना भी एक आवश्यक कर्त्तव्य है। ये प्रयोग अनेक हैं, जिनमें से प्रमुख हैं - सामायिक, ध्यान, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, प्रायश्चित्त, आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, परमात्म-भक्ति , अहिंसा, अपरिग्रह, व्रत आदि।
___ उपर्युक्त प्रयोगों को अपनाते हुए जीवन-प्रबन्धक को अपने स्तर में क्रमशः अभिवृद्धि करते जाना चाहिए। उसे तीव्र मानसिक-विकार की स्थिति से उबरकर क्रमशः मन्द, मन्दतर, मन्दतम और अन्ततः पूर्ण विकारमुक्त अवस्था की प्राप्ति करनी चाहिए। इस हेतु उसे आवश्यकतानुसार परिर्वतन-तकनीक एवं विसर्जन-तकनीक का उचित प्रयोग भी करना चाहिए।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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