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रोकती है, क्योंकि ये किरणें पेड़-पौधों, पशु-पक्षी के साथ मानव को भी हानि पहुँचाती है। यह मानव में त्वचीय कैंसर, मोतियाबिन्द आदि रोगों की उत्पत्ति भी कर देती है।
वायुमण्डल में विद्यमान विविध गैसों के भी अपने-अपने विशिष्ट उपकार हैं, जैसे – प्राकृतिक कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस जो पृथ्वी से परावर्तित अवरक्त विकिरणों (Infra Red Rays) को अवशोषित कर पृथ्वी पर आवश्यक तापमान को बनाए रखने में सहायक है। वाणी-संप्रेषण के लिए ध्वनि तरंगों के संप्रसारण में भी वायु सहायक है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि जैनशास्त्रों में वायु–संरक्षण के लिए धूम्रोत्पादक कार्यों एवं अधिक वाणी-विलास (वाचालता) से बचने के लिए जो निर्देश दिए गए हैं, वे आवश्यक हैं।14 (5) वनस्पति और वन संसाधन – वनस्पति एकमात्र संसाधन है, जो कार्बन-डाई-ऑक्साइड को अवशोषित कर मानवसहित अन्य जीवों को ऑक्सीजन प्रदान करती है। यह वनस्पति न केवल स्थल पर, अपितु सागर में भी पाई जाती है। अनुमानतः एक स्वस्थ वृक्ष लगभग छत्तीस व्यक्तियों को प्राणवायु देता है। 16 आश्चर्यजनक है कि एक हेक्टेयर में लगा वन, बीस कारों द्वारा उत्पन्न कार्बन-डाई-ऑक्साइड (CO.) गैस एवं धुआँ अवशोषित करता है।" ध्वनि प्रदूषण को कम करने में भी वनस्पति का महत्त्वपूर्ण योगदान है। 93 घन मी. में लगा वन आठ डेसीबल ध्वनि प्रदूषण दूर करता है।18 वनस्पति यह गर्मी में शीतलता और ठण्ड में उष्मा प्रदान करने वाला प्राकृतिक वातानुकूलक (A.C.) है। 20 घण्टे लगातार चलने वाले पाँच वातानुकूलक-यन्त्र (A.C.) जितनी शीतलता प्रदान करते हैं, उतनी एक वृक्ष देता है। वनस्पति न केवल वर्षा होने में सहायक है, अपितु बाढ़-प्रकोप को कम करने में भी सहायक है। ये मिट्टी की नमी को संचित रख कर मृदा-क्षरण (Soil erosion) को रोकती है। आज भी वनोत्पादों, जैसे – लकड़ी, कोयला, गोंद, जड़ी-बुटियाँ, रबर, चारा आदि से हम घरेल एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पर्ति करते हैं। वन ही असंख्य जीव-जन्त पश-पक्षियों. आदिवासी प्रजातियों के निवास हैं। वनस्पति के व्यापक महत्त्व के आधार पर ही जैनाचार्यों ने बिना प्रयोजन के पत्ती तोड़ना तो दूर, उसे स्पर्श करने का भी निषेध किया है। ये वन ही हैं, जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति के पुरोधा हैं। यहाँ साधना करते हुए हमारे जैनाचार्यों ने विश्व-पर्यावरण के संरक्षण के जिन सार्वभौमिक सिद्धान्तों की स्थापना की, वे आज भी पूर्ण प्रासंगिक हैं। (6) त्रसजीव-संसाधन – प्रकृति द्वारा प्रदत्त उपहारों में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति से अधिक विकसित हैं - त्रस अर्थात् गतिशील जीव-जन्तु। यदि त्रसजीव समाप्त हो जाएँ, तो पर्यावरणीय सन्तुलन ही भंग हो जाएगा। मानव को पृथ्वी आदि पूर्वोक्त पाँचों संसाधनों का दोहन करने में इन त्रस जीवों का विशिष्ट सहयोग मिलता है। आज भी गाय, भैंस, ऊँट, घोड़े, हाथी, गधे, बकरी आदि की सेवाएं ली जाती हैं तथा इनके उत्पादों का प्रयोग किया जाता है। चील और कौएँ कुशल परिमार्जक के रूप में उपयोगी हैं। चिड़िया, मधुमक्खी, पशु आदि बीजों के वितरण (फैलाने) में
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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