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मिलते हैं।
यद्यपि उपर्युक्त सभी विषय अलग-अलग होते हैं, किन्तु इन सभी का ज्ञान व्यक्ति की चेतना (आत्मा) को होता है। इन विषयों में से कुछ विषय अधिक प्रभावित करते हैं, तो कुछ अल्प । मन कभी किसी से जुड़ता है, तो कभी किसी से और तदनुसार आत्मा में पूर्वकथित अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा रूप ज्ञान होते हैं।
जैनाचार्यों के अनुसार, मन के सम्यक् प्रबन्धन के अभाव में उन्मत्त अवस्था होती है, जिससे नकारात्मक अवग्रहादि होते रहते हैं। आशय यह है कि व्यक्ति सम्यक्तया विचार न करके कर्मसंस्कारवश गलत मान्यताओं या आहारादि संज्ञाओं से प्रेरित होकर सम्यग्ज्ञान से वंचित रह जाता है और इससे व्यक्ति (आत्मा) में काषायिक वृत्तियाँ उत्पन्न होती रहती हैं, जो जैनदृष्टि से मनोविकार ही हैं ।
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इस प्रकार, जैनदृष्टि से देखें, तो कर्मजन्य परिस्थितियों के गलत मूल्यांकन से उत्पन्न अज्ञान ही मनोविकारों का मूल अंतरंग कारण है। जैनाचार्यों ने इसीलिए अज्ञान को महादुःख रूप बताया है । साथ ही यह भी कहा है कि मन रूपी उन्मत्त हाथी को वश में करने के लिए सम्यग्ज्ञान अंकुश के समान है। अन्यत्र यह भी कहा है कि क्रोध, मान, माया एवं लोभ अग्नि के समान हैं, जिन्हें सम्यग्ज्ञान रूपी जल के द्वारा शान्त किया जा सकता है।'
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निष्कर्ष यह है कि आज बढ़ते हुए तनाव एवं मनोविकारों से भले ही सभी पीड़ित हैं, फिर भी जैनदर्शन के अनुसार, इनका निराकरण सम्यग्ज्ञान के द्वारा किया जा सकता है। इस तनाव एवं मनोविकारों से रहित अवस्था को ही आदर्श मन - प्रबन्धन कहा जा सकता है। इस हेतु मन - प्रबन्धन के विविध सूत्रों की विवेचना आगे की जा रही है
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जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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