________________
7.6 जैनआचारमीमांसा के परिप्रेक्ष्य में मानसिक-प्रबन्धन
जैनआचारमीमांसा के अनुसार, मन ही व्यक्ति के व्यवहार का मूल संचालक एवं उसके औचित्य-अनौचित्य का मापदण्ड है और इसीलिए इसके सम्यक् प्रबन्धन पर जैनाचार्यों ने बारम्बार बल दिया है।
मानसिक-प्रबन्धन से उनका आशय है – मन का संयमन या नियंत्रण। उनके अनुसार, यह मन रूपी अश्व अज्ञानवश अनियंत्रित होकर उन्मार्ग पर भटकने लगता है, किन्तु श्रुत रूपी रस्सी अर्थात् सम्यग्ज्ञान के द्वारा इसे नियंत्रित कर सन्मार्ग पर आरूढ़ किया जा सकता है। इस हेतु आवश्यकता है - मन को साधने की। जो व्यक्ति मन को साध लेता है अर्थात् अपने अधीन कर लेता है, उसका मन प्रबन्धित हो जाता है और जिसका मन प्रबन्धित हो जाता है, वह जैनदृष्टि से सर्वसिद्धिसम्पन्न व्यक्ति है।146 कहा भी गया है – 'मनोविजेता जगतो विजेता'।147
जीवन-प्रबन्धन के अन्तर्गत मानसिक-प्रबन्धन को निम्न बिन्दुओं से समझा जा सकता है - * मन को अकुशल (अशुभ) विचारों से हटाना तथा कुशल (शुभ) विचारों में लगाना।148 ★ नकारात्मक विचारधारा को त्यागना तथा सकारात्मक विचारधारा को अपनाना। ★ चिन्तन, मनन, विचार आदि को सम्यक् दिशा देना। ★ कषायों को क्रमशः मन्दता और क्षीणता की ओर ले जाना। ★ मन की व्यग्रता को एकाग्रता (स्थिरता) में परिवर्तित करना। ★ संयम के प्रति निरुत्साहित मन में उत्साह का संचार करना। ★ लेश्याओं का क्रमशः परिष्कार करना अर्थात् अशुभ लेश्याओं से शुभ लेश्याओं की ओर बढ़ना। ★ जीवन में आध्यात्मिक सुख एवं शान्ति की प्राप्ति करना। ★ मानसिक शक्तियों का सुनियोजन करना। ★ मन को माध्यम बनाकर आत्मज्ञान की प्राप्ति करना। ★ मन को मलिनताओं (संज्ञाओं एवं वासनाओं) से मुक्त करना।
इस प्रकार, जैनदृष्टि से, मन की परिष्कृत अवस्था ही मानसिक-प्रबन्धन है। 7.6.1 मानसिक-प्रबन्धन की आवश्यकता क्यों?
__ जैनदृष्टि में मानसिक-प्रबन्धन व्यक्ति के जीवन का महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है, क्योंकि इस नींव पर ही जीवन-विकास की इमारत टिकी हुई है। मानसिक-प्रबन्धन का लाभ निम्नलिखित व्यवहारों (Behaviours) में परिलक्षित होता है -
★ जीवन की जटिल समस्याओं में भी तनावग्रस्त न होना। ★ पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों का कर्त्तव्य-बुद्धि से निर्वाह करना।
407
अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन
45
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org