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7.5 विविध मानसिक विकारों के कारण : बहिरंग और अंतरंग
__ पूर्व में हमने अप्रबन्धित मन की उस महाविनाशकारी शक्ति को जाना, जिससे वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों प्रकार की व्यवस्थाओं का सम्पूर्ण विघटन हो जाता है। प्रश्न उठता है कि मन की इस अप्रबन्धित अवस्था के क्या कारण हैं?
जैनदर्शन एवं आधुनिक मनोविज्ञान दोनों ही यह मानते हैं कि मानसिक विकार अर्थात् कषाय (संवेग) कभी भी अकारण नहीं होते। फिर भी, दोनों मान्यताओं में आंशिक समानता के साथ-साथ थोड़ी असमानता भी है।
जैनदर्शन में सूक्ष्म विश्लेषण करके इन कारणों के दो विभाग किए हैं - बहिरंग कारण अर्थात् निमित्त कारण एवं अंतरंग कारण अर्थात् उपादान (मूल) कारण। जैनाचार्यों के अनुसार, मानसिक विकारों की उत्पत्ति के लिए जो अनुकूल वातावरण निर्मित करता है, वह बहिरंग कारण है। किन्तु इस बाह्य परिवेश से प्रभावित होने या न होने की क्षमता मूलतः हमारी आत्मा में ही होती है, अतः वह अंतरंग कारण है। 7.5.1 मानसिक विकारों के बहिरंग कारण
जैनाचार्यों ने मानसिक विकारों के निम्नलिखित चार बहिरंग कारकों का वर्णन किया है - ★ स्वाभाविक कारक
★ शारीरिक कारक ★ नैमित्तिक कारक
★ मानसिक कारक इनमें से क्षुधादि का होना स्वाभाविक कारक है, शीत-उष्ण-वायु संचार आदि का होना नैमित्तिक कारक है, रोगादि का होना शारीरिक कारक है और इष्ट-अनिष्ट विचारों का होना मानसिक कारक है।136 जैनाचार्यों के अनुसार, मन के सम्यक् प्रबन्धन के अभाव में व्यक्ति इन कारणों से जब प्रभावित होता है, तब तनाव एवं मानसिक विकारों (दुःख) को प्राप्त होता है।
जहाँ तक आधुनिक मनोविज्ञान का सवाल है, इसमें भी मानसिक विकारों का सूक्ष्म विश्लेषण करके निम्नलिखित तीन कारकों को स्वीकार किया गया है -
1) जैविक कारक अर्थात् शारीरिक कारक (Biological factors) 2) मनःसामाजिक कारक (Psycho-social factors)
3) सामाजिक-सांस्कृतिक कारक (Socio-cultural factors) (1) जैविक कारक – यह शारीरिक अवस्था से जुड़ा हुआ कारक है। इसके निम्न विभाग हैं - ★ आनुवांशिक दोष (Genetic Defects) - जन्मजात होने वाले जीन्स एवं गुणसूत्र
(Chromosome) सम्बन्धी दोष । ★ शारीरिक गठन सम्बन्धी कारक (Constitutional factors) - शरीर के डीलडौल जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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