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(1) पुर्तगालियों के शिक्षा-प्रयास - इन्होंने गोवा से लेकर लंका तक अनेक स्थानों पर प्राथमिक स्कूल खोले। इनमें रोमन कैथोलिक धर्म, पुर्तगालीभाषा, स्थानीयभाषा, गणित, कृषि, हस्तकला आदि की शिक्षाएँ दी गई। यहाँ ईसाई धर्म को स्वीकार करने वाले बच्चों तथा पुर्तगाली एवं यूरोपीय बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। साथ ही निर्धन बच्चों को पुस्तकें, भोजन तथा वस्त्र की भी सुविधा दी जाती थी। इन्होनें उच्च शिक्षा के लिए जैसुएट कॉलेज की स्थापना की। यहाँ ईसाईधर्म, तर्कशास्त्र, लैटिनभाषा तथा संगीत की शिक्षा प्रदान की जाती थी। सन् 1575 ई. में प्रथम जैसुएट कॉलेज गोवा में खोला गया, जिसमें 300 से अधिक विद्यार्थी थे। भारत के प्रथम मुद्रणालय की स्थापना का श्रेय भी पुर्तगालियों को ही है। पुर्तगाली पादरियों में से सेंट जेवियर और सेंट रॉबर्ट मुख्य थे, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य किए। (2) डचों के शिक्षा प्रयास - सत्रहवीं शताब्दी में हॉलेण्डवासियों (डचों) ने भारत में अपने कारखाने खोले। ये चतुर राजनीतिज्ञ थे। इन्होंने धर्मशिक्षा को महत्त्व नहीं दिया, बल्कि कारखानों के कर्मचारियों के बालकों के लिए कुछ स्कूल खोले। इन स्कूलों में भारतीय बालकों को शिक्षा की स्वतन्त्रता थी। यहाँ डचभाषा, स्थानीयभाषा, भूगोल, गणित तथा कलाकौशल सिखाया जाता था। (3) फ्रांसीसियों के शिक्षा प्रयास – इन्होंने भी धर्म-प्रचार के लिए विद्यालय खोले। विशेषता यह थी कि इनमें ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य थी। भारतीय शिक्षकों द्वारा स्थानीयभाषा की जानकारी दी जाती थी। प्रवेश के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं था। निर्धन छात्रों को भोजन, वस्त्र, पुस्तक आदि का प्रलोभन दिया जाता था। (4) डेनो के शिक्षा-प्रयास - डेनमार्कवासियों (डेनो) ने ट्रंकोबार, त्रिचनापल्ली, तंजौर, मद्रास आदि स्थानों पर अनेक प्राथमिक स्कूल प्रारम्भ किए। सन् 1713 ई. में ट्रंकोबार में भारत का सर्वप्रथम अध्यापक-प्रशिक्षण महाविद्यालय खोला। भारत में आधुनिक शिक्षा के विकास में डेन मिशनरियों का उल्लेखनीय योगदान रहा है।" (5) अंग्रेजों के शिक्षा-प्रयास - राजनीतिक दृष्टि से अंग्रेजों का प्रभुत्व सर्वाधिक रहा। ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने व्यापार के साथ-साथ धर्मप्रचार को भी महत्त्व दिया। कम्पनी के कर्मचारीगण धर्मप्रचार को अपना कर्त्तव्य मानते थे। वे प्रोटस्टेंट मत के ईसाई पादरियों को भारत भेजते थे, जिनका किराया और सारा शिक्षा-व्यय दोनों ही कम्पनी वहन करती थी। एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरने पर कम्पनी का ईसाई मिशनरियों के साथ सम्बन्ध टूटने लगा। सन् 1800 के लगभग कम्पनी धर्म-परिवर्तन के प्रयासों की विरोधी बन गई, फिर भी अंतरंग सम्बन्धों के कारण से सन् 1853 तक मिशनरियों को कम्पनी से सहायता मिलती रही। सम्बन्ध टूटने के बाद भी कम्पनी और मिशनरी के द्वारा पृथक्-पृथक रूप से शिक्षा का विकास जारी रहा। कम्पनी ने सन् 1800 में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज और सन् 1818 में मद्रास में फोर्ट जार्ज कॉलेज खोला।
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अध्याय 3 : शिक्षा प्रबन्धन
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