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कार्य जिस समय पर करने योग्य है, वह कार्य उसी समय पर करना चाहिए। उठना बैठना, सोना, आहार करना, मल-मूत्र निःसरण करना इत्यादि शारीरिक - क्रियाएँ और स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि धार्मिक - क्रियाएँ समय पर करनी चाहिए। असमय कार्य करने से बहुत हानि होती है और कभी-कभी तो पछताना भी पड़ता है। 2
उत्तराध्ययन सूत्र में स्थूलरूप से जैन साधु-साध्वी के लिए समय का सामान्य विभाग इस प्रकार किया गया है73 .
1) दिन का प्रथम प्रहर
दिन का तृतीय प्रहर
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स्वाध्याय 5) रात्रि का प्रथम प्रहर
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भिक्षाचर्या 7 ) रात्रि का तृतीय प्रहर
सूक्ष्मरूप से जैन साधु-साध्वी के आचार का निरूपण हमें उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, मूलाचार आदि अनेक आगमों और उनकी टीकाओं में मिलता है। विस्तारभय से यहाँ उसकी चर्चा नहीं की गई है। इनकी टीकाओं में प्रत्येक कालखण्ड घड़ी (24 मिनिट) या मुहूर्त (48 मिनिट) के कार्यों का भी उल्लेख मिलता है।
स्वाध्याय
जिस प्रकार साधुओं को उचित समय पर उचित कार्य करना चाहिए, उसी प्रकार गृहस्थों को भी करना चाहिए। आचार्य हेमचंद्र के योगशास्त्र और उसकी टीका में तथा कुछ श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है। प्रत्येक मनुष्य की जीवनचर्या का समय के साथ बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, जो लोग अपने जीवन सम्यक् प्रकार से कार्य विभाजन करते हैं, उनका जीवन सुखी और सुव्यवस्थित होने के साथ-साथ दूसरों के लिए आदर्श भी होता है। 74 ध्यान रहे कि समय का विभाजन और कार्यों की प्राथमिकताओं को निर्धारित किए बिना कोई भी कार्य सुचारु रूप से पूर्ण नहीं हो सकता, इसीलिए प्रत्येक गृहस्थ, चाहे वह विद्यार्थी हो, व्यवसायी हो एवं प्रत्येक गृहिणी, चाहे वह कामकाजी महिला हो, सामाजिक कार्यकर्त्ता हो या अन्य कोई भी क्यों न हो, सभी को कार्यों की प्राथमिकताओं को तय करके समय का सम्यक् विभाजन करना चाहिए। समय-सारणी में सिर्फ अर्थोपार्जन और भोग के लिए ही समय का सम्पूर्ण निवेश न होकर 'धर्म' और 'मोक्ष' पुरूषार्थ के लिए भी सम्यक् व्यवस्था होनी चाहिए। जैनदर्शन के अनुसार, मोह और क्षोभ से रहित मोक्षावस्था ही प्रत्येक आत्मा का परम ध्येय है। 75 यह मोक्षावस्था ही परम आत्मिक शान्ति और आनन्द का आधार है, अतः इस दुर्लभ मनुष्य जीवन में प्रमाद का त्याग करते हुए आत्मानन्द की प्राप्ति का पराक्रम ही गृहस्थ और साधु दोनों का कर्त्तव्य है । वस्तुतः, मोक्ष का पुरूषार्थ ही एकमात्र साध्य है, जिसके लिए धर्म, अर्थ और काम साधन हैं।" इसी दृष्टि से व्यक्ति को आवश्यकता और अनावश्यकता का भेद करते हुए धर्म,
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
निद्रा
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