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पारस्परिक मनमुटाव से पनपी संवादहीनता मितभाषिता नहीं है। आज समाज इसी समस्या से गुजर रहा है। घर में अपने लोगों के बीच बैठकर भी कई बार अपनेपन की भावना नहीं रह पाती । कुछ भी कहने से पहले सौ बार सोचना जरुरी लगने लगता है कि कहीं कोई बात बढ़ न जाए और काम बिगड़ न जाए। ऐसी स्थिति में परस्पर मौन (असंवाद) अथवा दो टूक बातें होना भी सम्यक् मितभाषिता नहीं है । यहाँ पर आवश्यकता है कि हम बातचीत के लिए स्वस्थ वातावरण निर्मित करें, परस्पर एक-दूसरे के मन्तव्य समझें, अपनी गलतफहमियाँ दूर करें, अपने मानादि काषायिक भावों को उपशम करें और परिमित, लेकिन स्वस्थ - संवाद करें। यही उचित समाधान है और यह अनेकान्त दृष्टिकोण से ही सम्भव है। आचार्य भद्रबाहु ने कहा भी है जो व्यक्ति अभिव्यक्ति - कौशल में अकुशल है और अभिव्यक्ति की मर्यादाओं से अनभिज्ञ है, वह कुछ नहीं बोलकर भी मौन नहीं रहता, जबकि अभिव्यक्ति में दक्ष और अपनी मर्यादाओं में प्रसंगानुसार उचित बोलने वाला मौन ही है, भले ही वह बोले। इस अनेकान्तमयी विचारधारा को विचारवान् विवेकी व्यक्ति ही समझ सकते हैं । 115
जहाँ स्वार्थ और सम्मान की पूर्ति होती हो, वहाँ बहुत बोलना अन्यथा चुप्पी साध लेना भी सम्यक् मितभाषिता नहीं, बल्कि मौकापरस्ती है । व्यक्ति को इस गिरगिट वृत्ति से बचना चाहिए । इसी प्रकार कई बार व्यक्ति अहंकारवश भी मितभाषी जैसा व्यवहार करने लगता | जैनाचार्यों ने अहंकार के आठ प्रकार बताए हैं शारीरिक रूप-रंग, शारीरिक बल, भौतिक लाभ, भौतिक ऐश्वर्य, कुल (पितृपक्ष ), जाति (मातृपक्ष ), तप-त्याग एवं ज्ञान का अहंकार । अहंकार के कारण व्यक्ति स्वयं को समाज एवं परिवार के अन्य सदस्यों से पृथक् महसूस करता है। वह उच्च या हीनभावनाओं (Superiority or Inferiority complex) से ग्रसित होकर धीरे-धीरे अल्पभाषी बन जाता है । किन्तु यह भी सम्यक् मितभाषिता नहीं है। मितभाषिता कषायजन्य नहीं होनी चाहिए। कषायरहित रहते हुए सारभूत तथ्यपरक और आवश्यकतानुरूप कम बोलना ही सम्यक् मितभाषिता है।
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अन्त में इतना ही कहा जा सकता है कि मुखरूपी तिजोरी में वाणी रूपी रत्न सम्भालकर रखना चाहिए । इस तिजोरी पर मौनरूपी ताला लगाना चाहिए तथा योग्य ग्राहक मिलने पर ही उसे दिखाना चाहिए ।"
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(4) निरवद्य ( निर्दोष) वचन
जैनाचार्यों ने हित, मित और प्रिय वचनों के साथ ही वचन की निरवद्यता अर्थात् निर्दोषता या अहिंसकता पर भी अत्यधिक जोर दिया है, क्योंकि यदि वचन सावद्य हों, तो भाषा समिति का पालन भी नहीं हो सकता ।
जैनाचार्यों ने इसीलिए आचारांग, दशवैकालिक, प्रश्न - व्याकरण, सूत्रकृतांग, प्रज्ञापनासूत्र आदि शास्त्रों में न केवल निरवद्य वचनों को ही बोलने की प्रेरणा दी है, अपितु निरवद्यता का अतिगहन विश्लेषण भी किया है। यह विश्लेषण ही व्यक्ति 'क्या बोलना और क्या नहीं' का विवेक प्रदान
करता है।
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अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन
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