________________
4) चिन्तन - किसी पदार्थ के चिह्न को देखकर सम्पूर्ण पदार्थ को जान लेना। इसे तर्क , व्याप्ति, ___ऊहादि भी कहा जाता है। 5) अभिनिबोध – पदार्थ के अभिमुख होकर उसका बोध करना। 6) कल्पना शक्ति - यह इच्छाओं की अभिव्यक्ति का एक रूप है। इसके माध्यम से दो या
अधिक ज्ञान के विषयों का संयोजन कर नवीन विषय का सृजन किया जाता है। यह स्वप्न से बहुत अधिक भिन्न नहीं है। बस, अन्तर इतना है कि एक जाग्रत अवस्था में होता है और दूसरा
सुप्त अवस्था में 2 7) संकल्प शक्ति - यह कल्पनाओं का सघन रूप है। जब चिन्तन और मनन के द्वारा किसी
विषय का निश्चय होता है, तब उसके साथ-साथ विश्वास एवं दृष्टिकोण का निर्माण भी हो जाता है, यही संकल्प है।33 सामान्यतया 'संकल्प' शब्द का प्रयोग निषेधात्मक अर्थ में किया
जाता है, जो बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व (पुत्रादि मेरे हैं, ऐसा भाव) का द्योतक है। 8) विकल्प – यह विकल्प सामान्यतया दो प्रकार का होता है - क) ज्ञानात्मक , जैसे – यह घड़ी
है, यह कुर्सी है इत्यादि तथा ख) रागात्मक (भावात्मक), जैसे - इच्छा, कषाय, राग-द्वेष , सुख-दुःख आदि। यह घट है, यह पट है इत्यादि ग्रहण करने रूप जो ज्ञान होता है, वह ज्ञानात्मक तथा अंतरंग में 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दुःखी हूँ' इत्यादि हर्ष और विषाद रूप जो परिणाम
होता है, वह रागात्मक विकल्प कहलाता है। 9) विचार - मन का महत्त्वपूर्ण कार्य है – सोचना-विचारना। इसके माध्यम से वह एक से दूसरे
स्थान, विषय, व्यक्ति एवं वस्तु में विचरण करता रहता है। मन के पास विचारों के लिए शब्द रूपी माध्यम होता है। ये विचार कभी सम्बद्ध होते हैं, तो कभी असम्बद्ध । मन-प्रबन्धन के लिए
असम्बद्ध विचारों अर्थात् उच्छृखल विचारों को नियंत्रित करना अत्यावश्यक है। 10) निदान - भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए अभिलाषा का होना।। 11) श्रद्धान – किसी वस्तु के बारे में आस्था या मान्यता बनाना कि 'यह ऐसी ही है'। 12) जातिस्मृति – पूर्वजन्म के विशेष प्रसंगों की स्मृति होना। 13) मनोलेश्या – कषायों से युक्त मानसिक प्रवृत्ति । 14) ध्यान - एकाग्रतारुप मानसिक परिणाम।। ___ इस प्रकार, जैनदर्शन में मन को एक विशिष्ट साधन के रूप में प्रतिपादित किया गया है। सन्मति-प्रकरण में संशय, प्रतिभास, स्वप्न-ज्ञान, वितर्क, सुख-दुःख , क्षमा, इच्छा आदि को मन के विविध कार्यों के रूप में दर्शाया गया है। वस्तुतः मन का कार्य इन्द्रियों से भी अधिक व्यापक है। यह इन्द्रियों द्वारा गृहीत विषयों के बारे में तो सोचता ही है, साथ ही इन विषयों के गुण-दोषों के बारे में भी। इन्द्रियाँ तो केवल वर्तमान में उपस्थित पदार्थों को ही ग्रहण करती हैं, जबकि मन का विषय तीनों काल में रहे हुए उपस्थित-अनुपस्थित सभी पदार्थ बनते हैं। अतः जीवन-प्रबन्धन के अन्तर्गत
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
8
370
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org