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इसी दृष्टान्त के आधार पर मानवीय जीवन में तनाव की प्रक्रिया को निम्न स्थितियों द्वारा समझा जा सकता है - ★ जब व्यक्ति सहज होता है, तब उसके भाव शान्त होते हैं और मन में स्थिरता तथा शरीर में
स्वस्थता बनी रहती है। ★ जब उसे कोई मानसिक, शारीरिक अथवा बाहरी परिस्थितियाँ (Stimulents) मिलती हैं, तब उसे एक प्रकार की कमी का एहसास होता है, जिसकी पूर्ति हेतु मन में इच्छाएँ या आकांक्षाएँ उत्पन्न होने लगती हैं, इन इच्छाओं से एक विशेष बल या दबाव पैदा हो जाता है, जो तनाव का ही प्रारम्भिक रूप है। जैसे-जैसे इच्छाओं का दबाव बढ़ता है, वैसे-वैसे मन-वचन-काया एवं कषाय की प्रवृत्ति भी बढ़ती जाती है और पूर्ति का प्रयत्न भी, फलस्वरूप तनाव और तीव्र
हो जाता है। ★ यहाँ दो प्रकार की स्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं – 1) किसी प्रकार की बाधा का उत्पन्न न होना एवं इच्छा के अनुरूप फल का मिलना अथवा 2) किसी विघ्न का उपस्थित होना एवं इच्छा के अनुरूप कार्य न होकर प्रतिकूल कार्य हो जाना।
पहली स्थिति में इच्छा-पूर्ति हो जाने से तनाव समाप्त हो जाता है, किन्तु दूसरी स्थिति में अतृप्त इच्छाओं का दबाव बना ही रहता है और मन में इससे चंचलता एवं आतुरता की विशेष अभिवृद्धि होती है। व्यक्ति की एक ही अंतरंग पुकार होती है – 'यह होना ही चाहिए, होना ही चाहिए'। फलस्वरूप, उसे अत्यधिक तनाव का अनुभव होता है। ★ पहली वाली स्थिति स्वीकारात्मक तनाव अर्थात् सुखद तनाव का रूप धारण कर लेती है, जो प्रसन्नता एवं हर्ष के रूप में अभिव्यक्त होता है। यह तनाव ही ऐसे संस्कारों या मनोभावों को उत्पन्न करता है, जिससे इस प्रकार की इच्छाएँ पुनः-पुनः जाग्रत होती रहे। स्थानांगसूत्र में इस स्थिति को 'सुमनस्कता' कहा गया है।
दूसरी स्थिति नकारात्मक तनाव अर्थात दु:खद तनाव का रूप धारण कर लेती है, जो शोक , भय , क्रोध, घृणा, विषाद आदि भावों के रूप में अभिव्यक्त होता है। स्थानांगसूत्र में इस स्थिति को 'दुर्मनस्कता' कहा गया है।" ★ ये दोनों प्रकार के तनाव शीघ्र भी समाप्त हो सकते हैं, लम्बे समय तक भी चल सकते हैं या
स्थायी विकृति (Permanent Disorder) के रूप में भी परिवर्तित हो सकते हैं। ★ ये तनाव आत्मा में भावनात्मक परिवर्तन के रूप में प्रारम्भ होते हैं, फिर मन को प्रभावित करते
हैं, जिससे शरीर की अन्तःस्रावी ग्रन्थियों (Endocrine Glands) से अनेक प्रकार के अहितकारी हार्मोन्स का स्राव होने लगता है, जो रक्त में मिलकर शरीर के संवेदनशील अंगों में पहुंचकर उन्हें दुष्प्रभावित कर देता है। अन्ततः इन तनावों से व्यक्ति के सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक,
वाचिक एवं आत्मिक व्यक्तित्व का विघटन हो जाता है और इसका दूरगामी प्रभाव सामाजिक 24 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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