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संवेग (Emotions)
सकारात्मक (Positive)
नकारात्मक (Negative)
प्रेम (Love)
आनन्द, हर्ष, प्रसन्नता
(Joy)
क्रोध (Anger)
उदासी (Sadness)
डर (Fear)
अनुराग, प्रीति,
परमसुख
स्नेह
(Bliss)
दुःख (Annoyance)
(पीड़ा-सन्ताप
(Agony)
चिन्ता,
क्लेश ((Worry)
(Fondness)
मोह, मूढ़ता (Infatuation)
सन्तुष्टि (Contentment)
शत्रुता (Hostility)
शोक, दुःख,
खेद, पश्चात्ताप (Grief)
भयानक,
डरावना (Horror)
अनादर
गर्व, सम्मान (Pride/Esteem)
(Contempt)
अपराध (Guilt)
ईर्ष्या
अकेलापन
(Jealousy) | (Lonliness) जैन-परम्परा में इन मूल प्रवृत्तियों एवं तज्जन्य संवेगों को संज्ञा के रूप में वर्णित किया है, जैसे - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि।
जैनदर्शन के अनुसार, आत्मा मन के संयोग से अनेक कार्यों को करती है। जिनमें तीन मुख्य हैं - 1) ज्ञानात्मक, 2) भावात्मक एवं 3) क्रियात्मक। इन्हें जैनदर्शन में ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया है। आत्मा अपनी शुद्ध अवस्था में होने पर इन कार्यों को शुद्ध रूप में पूर्ण करती है और अशुद्ध अवस्था में रहती हुई अशुद्ध रूप में। इस अशुद्ध अवस्था में अज्ञानरूप कार्य होने से भावों में कलुषित मनोवृत्तियों की उत्पत्ति होती है, जिन्हें जैन-मनोविज्ञान में कषाय की संज्ञा दी गई है।
‘कषाय' शब्द 'कष्' और 'आय' – इन दो शब्दों के मेल से बना है। कष् का अर्थ है – संसार एवं आय का अर्थ है - लाभ। अतः बारम्बार संसार की प्राप्ति कराने वाली चित्त-वृत्ति कषाय है। 100 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार 101 - 'जिससे दुःखों की प्राप्ति होती है, वह कषाय है।' राजवार्त्तिककार के अनुसार102 - 'जो आत्मा का हनन करे, उसे कुगति में ले जाए, वह कषाय है।' गोम्मटसार के अनुसार103 – 'कर्मरूपी खेत को जोतकर जो सुख-दुःख रूपी धान्य को उत्पन्न करती है, वह कषाय है।' इस प्रकार जैनाचार्यों की दृष्टि में, कषाय चित्त क्षुब्ध करने वाली मलिन मनोवृत्ति है और इसे ही मानसिक विकार कहते हैं।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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