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7.4 विविध मानसिक विकार एवं उनके दुष्परिणाम
__ आज का मानव अपनी उपलब्धियों से सन्तुष्ट नहीं है। वह जीवन को अस्मिता, इच्छा और आकांक्षाओं के बीच में बीता रहा है। व्यक्ति का अहं ही उसकी अस्मिता है, वह कुछ पाना चाहता है, यह उसकी इच्छा है और वह भविष्य में कुछ होना चाहता है, यह उसकी आकांक्षा है। जब इन तीनों की पूर्ति नहीं होती, तो मनोविकारों का जन्म होता है।
इन तीनों की पूर्ति न हो पाने से जीवन में अनेक आवश्यकताएँ महसूस होती रहती है। ये आवश्यकताएँ इतनी प्रमुख बन जाती हैं कि व्यक्ति का पूरा जीवन ही इनकी पूर्ति के प्रयासों में बीत जाता है। उपाध्याय विनयविजयजी ने इनका मार्मिक चित्रण करते हुए कहा है कि प्राथमिक इच्छाएँ भोजन-पानी को उपलब्ध करने की हैं, दूसरी वस्त्र, मकान और अलंकार की प्राप्ति के लिए होती हैं, तो तीसरी विवाह, सन्तान प्राप्ति और प्रिय ऐन्द्रिक-विषयों को पाने की होती हैं। 93 इस प्रकार, प्राथमिक आवश्यकताएँ क्रमशः बढ़ती हुई इच्छा और तृष्णा का रूप ले लेती हैं। इनकी पूर्ति का प्रयत्न उतना ही दुष्कर है, जितना छलनी को जल से भरना। अतः व्यक्ति की इच्छा और तृष्णा कभी समाप्त ही नहीं हो पाती।
इन अन्तहीन इच्छाओं के चलते आज का व्यक्ति मानसिक व्यग्रता से बेचैन होता रहता है। वह कभी अतीत की स्मृतियों में खो जाता है, तो कभी भविष्य की कल्पनाओं में बह जाता है और कभी वर्तमान की झंझटों में फँस जाता है। कभी अपनी उपलब्धियों के बारे में सोचकर (क्षणिक) सन्तोष का अनुभव करता है, तो कभी बाधाओं के बारे में चिन्तित होकर निराश हो जाता है। एक ही क्षण पहले घर के बारे में सोचता है, तो दूसरे ही क्षण अर्थार्जन के बारे में और फिर अगले ही क्षण अपनी सामाजिक स्थिति के बारे में सोचने लगता है। इसीलिए जैनाचार्यों को कहना पड़ा कि यह मन बन्दर की तरह चंचल है, जो क्षणभर के लिए भी शान्त होकर नहीं बैठ सकता।5
इस प्रकार, व्यक्ति के विचारों एवं विकल्पों का प्रवाह अनवरत् रुप से बना ही रहता है और वह एक ही दिन में असंख्य विकल्पों (अध्यवसायों) के बीच में झूलता रहता है। आचारांगसूत्र में भी कहा गया है कि अनेक विकल्पों के कारण यह व्यक्ति अनेक चित्त वाला है।
जब-जब भी व्यक्ति परिस्थिति या घटना का विश्लेषण एवं मूल्यांकन करता है, तब-तब उसके भीतर की सुप्त वासनाएँ (संज्ञाएँ) जाग्रत होकर इच्छा का रूप धारण कर लेती हैं। फिर उनकी पूर्ति की आकांक्षा से एक तनाव उत्पन्न होता है, जो आत्म-प्रदेशों को स्पन्दित करता है तथा यह स्पन्दन मन, वाणी और शरीर की सक्रियता के रूप में अभिव्यक्त होने लगता है। शनैः-शनैः आत्मा में क्रोधादि मनोविकारों का प्रादुर्भाव होता जाता है, जिनसे आत्मा आकुल-व्याकुल (दुःखी) होती रहती है। यदि ये विसंगतियाँ नियंत्रित नहीं हों, तो ये व्यक्ति के व्यक्तित्व को ही विघटित करके अनेक प्रकार के मनोरोगों तथा पारिवारिक एवं सामाजिक तनावों का कारण भी बन जाती हैं। इस प्रकार, इच्छाएँ तनाव
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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