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स्थानांगसूत्र में मानोत्पत्ति के भी चार कारण निर्दिष्ट हैं - आत्म-प्रतिष्ठित, पर-प्रतिष्ठित, तदुभय-प्रतिष्ठित एवं अप्रतिष्ठित ।115 (3) माया – यह कषाय 'कुटिलता' की बोधक है। मायावी व्यक्ति के बारे में कहा गया है - जो मन में होता है, उसे वह कहता नहीं और जो कहता है, उसे वह करता नहीं। वस्तुतः मायावी व्यक्ति उस शहद लगी छुरी के समान है, जो मृदु व्यवहार से विश्वास जीतकर विश्वासघात करता है। वह स्वार्थसिद्धि के लिए छल-कपट का आश्रय लेकर विविध स्वांग रचने में ही अपनी मानसिक ऊर्जा का अपव्यय करता रहता है। अन्ततः भेद खुल जाने पर वह अत्यधिक तनावग्रस्त एवं शोकाकुल हो जाता है। स्थानांगसूत्र में मायोत्पत्ति के भी चार कारण निर्दिष्ट हैं - आत्म-प्रतिष्ठित, पर-प्रतिष्ठित, तदुभय-प्रतिष्ठित एवं अप्रतिष्ठित।118 (4) लोभ - यह सभी मनोविकारों का जनक है एवं इसके वशीभूत होने वाला व्यक्ति जो 'है' उसमें सन्तुष्ट न होकर सदैव ‘होना चाहिए' की लालसा में लीन रहता है। इससे भी मानसिक ऊर्जा का अत्यधिक अपव्यय होता है। जैनाचार्यों ने इसीलिए लोभ को दुःख रूपी बेल की जड़ बताया है। 119 स्थानांगसूत्र में लोभोत्पत्ति के भी चार कारण निर्दिष्ट हैं - आत्म-प्रतिष्ठित, पर-प्रतिष्ठित, तदुभय-प्रतिष्ठित एवं अप्रतिष्ठित ।120 (5) हास्य – सुख या प्रसन्नता की अभिव्यक्ति ही हास्य है। इसमें अनेक प्रकार के मनोभावों की अभिप्रेरणा कार्य करती है, जैसे – कभी व्यक्ति किसी का उपहास करने, तो कभी किसी को हँसाने के लिए हास्य करता है। इसे भी जैनाचार्यों ने मनोविकार ही बताया है। (6) रति - यह मनोविकार इन्द्रिय विषयों में चित्त की तन्मयता या प्रीति का सूचक है, इससे अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं के प्रति आसक्ति का जन्म होता है। (7) अरति - अप्रिय इन्द्रिय विषयों में अरुचि ही अरति है। यह मनोविकार विकसित होकर घृणा
और द्वेष बन जाता है। (8) भय - किसी वास्तविक या काल्पनिक घटना से बचने की वृत्ति ही भय है। इस मनोविकार में आत्मसुरक्षा का भाव प्रबल होता है। इसके सात भेद बताए गए हैं – इहलोक का भय , परलोक का भय, आदान का भय , अकस्मात् विपदा का भय, आजीविका का भय, मरण का भय एवं अपयश का भय। (9) शोक - इष्ट वियोग एवं अनिष्ट संयोग से होने वाली चित्त की विकलता ही शोक है। यह मनोविकार भी मानसिक समत्व का घातक है।
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अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन
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