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है – अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन। अनन्तानुबन्धी क्रोधादि, वे तीव्रतम आवेग हैं, जो व्यक्ति के दृष्टिकोण को ही सही नहीं होने देते। इससे कम तीव्र अप्रत्याख्यानी क्रोधादि के आवेग हैं, जो व्यक्ति के आत्म-प्रबन्धन की शक्ति को अल्पांश भी अभिव्यक्त नहीं होने देते। इससे और कम तीव्र प्रत्याख्यानी क्रोधादि के आवेग हैं, जो व्यक्ति के आत्म-प्रबन्धन के सामर्थ्य को उच्चतम स्तर तक पहुँचने ही नहीं देते। चौथे सबसे मन्द संज्वलन क्रोधादि के आवेग हैं, जो व्यक्ति के आत्म-प्रबन्धन की परिपूर्णता अर्थात् कषायरहितता की अवस्था के लिए अवरोध पैदा करते हैं। 110 सम्यक् मन-प्रबन्धन के लिए जैनाचार्यों ने इन अनन्तानुबन्धी आदि काषायिक भावों पर क्रमशः विजय प्राप्त करते हुए अन्ततः वीतरागता रूपी परिपूर्ण मानसिक आरोग्य दशा को पाने का निर्देश दिया है।
जैनाचार्यों ने मन्द आवेग रूप ‘नोकषाय' के भी नौ भेद दर्शाए हैं – हास्य , रति, अरति, शोक, भय, घृणा, स्त्री-वेद, पुरूष-वेद एवं नपुंसक-वेद।
संक्षेप में, इन चार क्रोधादि कषाय तथा नौ हास्यादि नोकषाय का स्वरूप निम्न है, जिसे जानकर मन-प्रबन्धन की कषायरहित अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है - (1) क्रोध - यह एक ऐसा मनोविकार है, जिससे व्यक्ति उत्तेजित हो जाता है, किन्तु उसकी विचार-क्षमता और तर्कशक्ति शिथिल हो जाती है। यह शरीर और मन को सन्ताप देता है, वैर का कारण बनता है तथा दुर्गति की ओर ले जाता है।11 क्रोधी व्यक्ति उस दियासलाई के समान होता है, जो दूसरे को जलाए या नहीं, परन्तु स्वयं तो झुलसता ही है। 112 प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक को स्थानांगसूत्र में वर्णित क्रोधोत्पत्ति के निम्न कारणों के आधार पर अपना उचित मूल्यांकन करना चाहिए।113
★ आत्म–प्रतिष्ठित – स्वनिमित्त से क्रोध आना। ★ पर-प्रतिष्ठित - परनिमित्त से क्रोध आना। ★ तदुभय-प्रतिष्ठित – स्व–पर दोनों के निमित्त से क्रोध आना। ★ अप्रतिष्ठित – बिना निमित्त के ही चित्त का क्षुब्ध हो जाना। __क्रोध वस्तुतः कार्य है और उसके कारण हैं – मान, माया और लोभ । अभिमान को ठेस लगने पर, माया (कुटिलता) के प्रकट होने पर अथवा लोभ के पूर्ण न होने पर व्यक्ति की क्रोध-ज्वालाएँ भभकने लगती हैं। क्रोध का निमित्त भले ही कोई पदार्थ या प्राणी हो, परन्तु मूल कारण तो आत्म-मलिनता ही है।14 (2) मान - यह भी एक मनोविकार है, जो स्वयं को उच्च एवं दूसरों को निम्न समझने से उत्पन्न होता है। इससे विनय , ज्ञान और सदाचार नष्ट हो जाते हैं तथा विवेक भी लुप्त हो जाता है। यह धर्म, अर्थ और काम का घातक है। इस मान कषाय के कारण ही व्यक्ति हीन भावना (Inferiority Complex) एवं आत्मगौरव की भावना (Superiority Complex) के तनाव से त्रस्त रहता है।
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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