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7.3.5 तनाव की प्रक्रिया
तनाव एक निरन्तर गतिशील प्रक्रिया है, जो व्यक्ति एवं वस्तु की वातावरणीय परिवर्तन के प्रति अनुक्रिया की सूचक है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि तनाव उत्पन्न होने की प्रक्रिया क्या है और कोई वस्तु अपने आसपास के वातावरण से कैसे प्रभावित होती है? इस प्रश्न का सम्यक् निराकरण मन-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक नियमों के निर्धारण के लिए अत्यावश्यक है।
जैनदृष्टिकोण से तनाव की उत्पत्ति की प्रक्रिया को समझने के लिए निम्न वैज्ञानिक दृष्टान्त का सहारा लिया जा सकता है -
लोहे के एक पिण्ड को हम तनाव के अध्ययन का आधार बना सकते हैं। इसमें अनेकानेक सूक्ष्म कण (Molecules) होते हैं, जो एक-दूसरे से सटे हुए और सुव्यवस्थित ढंग से जमे हुए रहते हैं। जब इस लोह-पिण्ड पर कोई बाह्य दबाव आता है, तब तीन प्रकार की (अ) मूल स्थिति स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं -
pooo ★ जब इस पर दबाने वाला बल (Compressive force) लगाया - 00000
•+00000 जाता है, तब इसमें मौजूद परमाणु उस बल का प्रतिकार करते
000001 हैं, परन्तु यदि बल अधिक होता है, तो ये परमाणु उसे सहन (ब) प्रथम विकृत स्थिति
नहीं कर पाते और दब जाते हैं। ★ जब खींचने वाला बल (Tensile Force) लगाया जाता है, तब : --00ood
ये परमाणु उस बल का भी प्रतिकार करते हैं, परन्तु सहन नहीं - होने पर ये खिंच जाते हैं।
(स) द्वितीय विकृत स्थिति ★ जब मोड़ने वाला बल (Shearing Force) का प्रयोग किया
जाता है, तब भी ये परमाणु पहले तो उस बल का प्रतिकार करते हैं, परन्तु सहन नहीं होने पर ये मुड़ जाते हैं।
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bo०व उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि बाह्य दबाव से बचने के लिए (द) ततीय विकत स्थिति लोह-पिण्ड में एक विशिष्ट अनुक्रिया होती है, जो उस बाह्य बल का विरोध (प्रतिरोध) करती है। यह प्रतिरोधी शक्ति एक प्रकार का अंतरंग बल या दबाव पैदा करती है
और इसे ही तनाव कहते हैं। इस तनाव से वस्तु की स्थिति चरमरा जाती है और उसमें अव्यवस्थितता (Disturbance) आ जाती है, जिससे उसका आकार भी विकृत (Deformed) हो जाता है।
वस्तु में बाह्य-दबाव को सहन करने की क्षमता तो होती है, परन्तु इसके लगातार बढ़ने पर एक सीमा के बाद वस्तु में स्थायी विकृति आ जाती है। इतना ही नहीं, बाह्य दबाव के असहनीय हो जाने पर वस्तु टूटकर विभक्त भी हो सकती है।
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अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन
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