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7.3 तनाव क्या? क्यों? कैसे?
यह सत्य है कि व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के जीवन में मन ही मनुष्य की सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति है, किन्तु इसके सम्यक् प्रबन्धन के अभाव में व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन और आध्यात्मिक विकास के मार्ग में अनेक बाधाएँ उत्पन्न हो रही हैं। आज मन में उत्पन्न होने वाले तनाव एवं अन्य मनोरोग एक ज्वलन्त समस्या बने हुए हैं, ये एड्स एवं कैंसर से भी अधिक खतरनाक सिद्ध हो रहे हैं।
प्रसिद्ध मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. मनजीत सिंह भाटिया के अनुसार, अमेरिका जैसे विकसित देशों में मनोरोगियों का प्रतिशत सर्वाधिक है। भारत में भी लगभग सात प्रतिशत लोग मनोरोगी हैं, जिनमें से लगभग आधे से अधिक तो जीवन की सामाजिक एवं आर्थिक चिन्ताओं से त्रस्त होकर इस दुःखद अवस्था में पहुँचे हैं और लगभग एक चौथाई को तो तुरन्त ही चिकित्सकीय उपचार की आवश्यकता
यदि आध्यात्मिक दृष्टि से आज का परिदृश्य देखा जाए, तो यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आज प्रत्येक व्यक्ति कम या अधिक रूप में मनोरोगी ही है, बस, अन्तर है तो गुणात्मक (Qualitative) एवं मात्रात्मक (Quantitative) स्तर का। वस्तुतः, जो लोग मनोविकारों पर नियंत्रण नहीं रख पाते और सामाजिकता की सीमा का उल्लंघन कर देते हैं, वे तो मनोरोगी हैं ही। परन्तु जो अंतरंग में मनोविकारों का पोषण करते हुए भी सामान्य कहलाने के लिए अपने मनोविकारों को किसी तरह दबा कर जीते हैं और सामाजिकता की मर्यादा में रहने का स्वांग रचते हैं, वे भी एक प्रकार के मनोरोगी ही हैं। भगवती आराधना में भी कहा गया है कि कषायों से विक्षिप्त व्यक्ति मनोरोगी (उन्मत्त)
ही है।56
अतः यह जरुरी हो जाता है कि व्यक्ति मन-प्रबन्धन के लिए प्रयत्न करने से पूर्व तनावों, उनके स्वरूप और कारणों को सम्यक्तया समझे। 7.3.1 तनाव शब्द का अर्थ एवं अवधारणा
तनाव आधुनिक युग का प्रचलित शब्द है, जिसे अंग्रेजी भाषा में स्ट्रैस (Stress) तथा हिन्दी भाषा में दबाव, खिंचाव, उत्तेजना, अनुक्रिया (Response), प्रतिक्रिया, प्रतिबल आदि शब्दों के द्वारा व्याख्यायित किया जाता है। जैनाचार्यों ने तनाव के लिए आतुरता, दुःख, क्लेश, चिन्ता आदि शब्दों का प्रयोग किया है।
जैनाचार्यों की दृष्टि में, तनाव एक विभाव दशा है और यह न केवल चेतन, अपितु जड़ पदार्थों में भी उत्पन्न होती रहती है। उनके अनुसार, विश्व जड़ एवं चेतन का एक पिण्ड है, जिसमें प्रत्येक पदार्थ की अवस्थाओं का प्रतिसमय रूपान्तरण होता रहता है। बदलती हुई अवस्थाओं में एक पदार्थ का दूसरे पदार्थों के साथ संसर्ग (संयोग-सम्बन्ध) होता रहता है, इस संसर्ग में जब कोई पदार्थ अपने
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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