________________
आशय यह है कि एक समान विषय (घटना या परिस्थिति) होने पर भी किसी को उसका आकर्षण हो सकता है, तो किसी को विकर्षण 69 और इनके फलस्वरूप कोई अधिक तनाव-ग्रस्त होता है, तो कोई कम, किन्तु योग्य जीवन-प्रबन्धक (साधक) समता में रहता है। * जैनाचार्यों ने परिस्थिति से प्रभावित होने की वैयक्तिक/आत्मिक योग्यता (निषेधात्मक
क्षमता/Negative Ability) को 'औदयिक-भाव' के रूप में व्याख्यायित किया है। अतः तनाव को एक प्रकार का औदयिक भाव कहा जा सकता है, जिसके फलस्वरूप मनोविचलन
की अवस्था उत्पन्न होती है। ★ तनाव की उत्पत्ति बाह्य एवं आन्तरिक दोनों प्रकार के उद्दीपकों के मूल्यांकन के पश्चात् होती
है।
• बाह्य उद्दीपक (External Stimulent), जैसे - निन्दात्मक कटु-वचन श्रवण, तीव्र
ठण्ड-गर्मी आदि। • आन्तरिक उद्दीपक (Internal Stimulent), जैसे - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि
संज्ञाएँ। * तनाव एक आवश्यकता नहीं, अपितु विवशता (कमजोरी) है, जो व्यक्ति में आत्म-नियंत्रण
(स्व-प्रबन्धन) की कमी के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है। तनाव का समीकरण कुछ इस प्रकार
• आत्म-नियंत्रण > उद्दीपक = तनावरहित अवस्था
• आत्म-नियंत्रण < उद्दीपक = तनावसहित अवस्था ★ तनाव समय के साथ बढ़ भी सकता है, तो घट भी सकता है और योग्य साधक हो, तो समाप्त
भी हो सकता है। जैनकथानकों में प्रसन्नचंद्र राजर्षि का वर्णन आता है, जिन्हें ध्यान में लीन रहते हुए कुछ शब्द सुनाई पड़े, जिससे पूर्व मोह जाग्रत हो उठा और तीव्र तनाव उत्पन्न हो गया, लेकिन कुछ ही समय बाद आत्मबोध होने पर तनाव तीव्रता से घटता गया एवं अन्ततः वे पूर्ण तनावमुक्त दशा (कैवल्य) को प्राप्त हो गए। ★ तनाव किसी वस्तु या परिस्थिति के प्रति आकर्षण (राग) से भी होता है और विकर्षण (द्वेष) से
भी। सामान्यतया केवल विकर्षण को ही तनाव का कारण माना जाता है, किन्तु यह एक भ्रान्ति है। जैनाचार्यों ने इसीलिए राग और द्वेष दोनों को ही दुःख अर्थात् तनाव का मूल कहा है' एवं इन पर जीवन-प्रबन्धन की साधना के द्वारा विजय प्राप्त करने की प्रेरणा दी है।
• राग (आकर्षण) - लोभ , माया, रति आदि मनोभाव।
• द्वेष (विकर्षण) – क्रोध, भय, अरति आदि मनोभाव। ★ तनाव एक प्रकार की अनुक्रिया है, जो व्यक्ति की शान्ति एवं आनन्द को भंग कर उसे दुःखी एवं सन्तप्त कर देती है, इसीलिए जैनाचार्यों ने कहा है – क्रिया तो करो, लेकिन प्रतिक्रिया अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन
17
379
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org