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जीवन-प्रबन्धन के परिप्रेक्ष्य में जैनआचारदर्शन के आधार पर मेरी दृष्टि में, वैयक्तिक तनाव को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है -
तनाव वह सार्वभौमिक, परिवर्तनशील एवं बहुआयामी प्रक्रिया है, जो परिस्थिति या घटना के काल्पनिक अथवा वास्तविक मूल्यांकन के बाद की गई एक विशिष्ट अनुक्रिया (Response) है, जिससे व्यक्ति में आकर्षण (राग) या विकर्षण (द्वेष) का दबाव या बल उत्पन्न होता है और व्यक्ति के व्यक्तित्व का विघटन हो जाता है। 7.3.3 तनाव की विशेषताएँ ★ तनाव एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है। जैनाचार्यों की भी यह मान्यता है कि जीवन एवं जड़-जगत् दोनों गत्यात्मक (Dynamic) हैं। इस प्रक्रिया के तीन महत्त्वपूर्ण घटक हैं -
• उद्दीपक (बाह्य परिस्थिति/संयोग सम्बन्ध/Stimulent) : परिवर्तनशील • प्राणी (Organism)
: परिवर्तनशील • अनुक्रिया (Response)
: परिवर्तनशील उदाहरणार्थ, अचानक किसी सर्प को देखकर व्यक्ति भयभीत हो जाता है और उसकी दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। यहाँ सर्प एक 'उद्दीपक' है, व्यक्ति ‘प्राणी' है और धड़कनों का
बढ़ना 'अनुक्रिया' है। ★ तनाव एक बहुआयामी प्रक्रिया (Multifaceted Process) है, क्योंकि इसके विविध आयाम होते हैं, जैसे – वैयक्तिक-तनाव, पारिवारिक तनाव, वैश्विक-तनाव, आर्थिक-तनाव आदि । आचार्य महाप्रज्ञजी ने वैयक्तिक जीवन की अपेक्षा से तनाव के तीन प्रकार बताए हैं 65 - 1) शारीरिक तनाव - शारीरिक श्रम करते-करते थक जाना, 2) मानसिक तनाव - अत्यधिक चिन्तन-मनन करना एवं 3) भावात्मक-तनाव - आर्तध्यान (विषादरूप भाव) एवं रौद्रध्यान (हर्षरूप भाव) करना। इसके अतिरिक्त भी तनाव के अनेक प्रकार सम्भव हैं, जैसे - राग-द्वेषात्मक तनाव, प्रशस्त-अप्रशस्त तनाव, प्रियकर-अप्रियकर तनाव, अल्पकालिक-दीर्घकालिक तनाव, अत्यल्प-अत्यधिक तनाव इत्यादि। इनकी चर्चा आगे की जाएगी। तनाव वास्तविक परिस्थितियों से सम्बन्धित भी होता है और काल्पनिक से भी। आशय यह है कि व्यक्ति का मन चारों ओर दौड़ने वाले अश्व के समान है अथवा क्षणभर के लिए भी शान्त नहीं बैठने वाले बन्दर के समान है। सन्त आनन्दघनजी भी कहते हैं कि यह मन रात-दिन का विचार किए बिना कभी समूह और कभी एकान्त, कभी आकाश और कभी पाताल में भटकता ही रहता है। इसी कारण व्यक्ति का तनाव बना रहता है। ★ तनाव और उसके उद्दीपक (परिस्थिति/Stimulent) के मध्य कोई निश्चित सम्बन्ध नहीं होता। जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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